Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चौदहवां कषायपद]] [ 141 [963-1 उ.] गौतम ! क्रोध चार प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार--(१) आभोगनिर्वर्तित, (2) अनाभोगनिर्वतित, (3) उपशान्त और (4) अनुपशान्त / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [963-2] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक में चार प्रकार के क्रोध का कथन करना चाहिए। [3] एवं माणेण वि मायाए विलोभेण वि चत्तारि दंडया / {963-3] क्रोध के समान ही मान के, माया के और लोभ के (अाभोगनिर्वतित आदि) चार-चार भेद होते हैं तथा (नारकों से लेकर वैमानिकों तक में) मान, माया और लोभ के भी ये ही चार-चार भेद (दण्डक) समझने चाहिए। विवेचन-क्रोध प्रादि कषायों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 962, 963) में क्रोध आदि कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद करके समस्त संसारी जीवों में उनके पाए जाने का निरूपण किया गया है तथा क्रोध आदि कषायों के प्रकारान्तर से आभोगनिवर्तित आदि चार प्रभेदों और समस्त संसारी जीवों में उनके सद्भाव की प्ररूपणा की गई है। अनन्तानुबन्धी प्रादि चारों को परिभाषा-इन चारों कषायों के शब्दार्थों का विचार कर्मप्रकृतिपद में किया जाएगा। यहाँ चारों की परिभाषा दी जाती है-अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व गुणविघातक, अप्रत्याख्यान -देशविरतिगुण विघाती, प्रत्याख्यानावरण-सर्वविरतिगुणविघाती और संज्वलन-यथाख्यातचारित्रविघातक / प्राभोगनिवतित प्रादि चारों प्रकार के क्रोधादि की व्याख्या-पाभोगनिर्वतित (उपयोगपूर्वक उत्पन्न हुमा) क्रोध-जब दूसरे के अपराध को जान कर और क्रोध के पुष्ट कारण का अवलम्बन लेकर तथा प्रकारान्तर से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती, इस प्रकार का उपयोग (विचार) करके कोई क्रोध करता है, तब वह क्रोध प्राभोगनिर्वतित (विचारपूर्वक उत्पन्न) कहलाता है / अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध-(बिना उपयोग उत्पन्न हुआ)--जब यों ही साधारणरूप से मोहवश गुण-दोष की विचारणा से शून्य पराधीन बना हुआ जीव क्रोध करता है, तब वह क्रोध प्रनामोगनिर्वतित कहलाता है। उपशान्त क्रोध-जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त न हो, वह 'उपशान्त' कहलाता है। अनुपशान्त क्रोध-जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त हो, वह 'अनुपशान्त' कहलाता है।' कषायों से अष्ट कर्मप्रकृतियों के चयादि की प्ररूपणा--- 664. [1] जीवा गं भंते ! कतिहि ठाणेहि अट्ट कम्मपगडीनो चिणिसु ? गोयमा ! चहि ठाणेहि अट्ठ कम्मपगडीयो चिणिसु / तं जहा–कोहेणं 1 माणेणं 2 मायाए 3 लोभेणं 4 / [964-1 प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों (स्थानों) से आठ कर्मप्रकृतियों का चय किया ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 291 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org