________________ 15.] [प्रज्ञापनासूत्र से जो भीतर में (शरीर में) शीतस्पर्शवेदन का अनुभव होता है, उसका कारण यह है कि स्पर्शेन्द्रिय सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्ती होती है। इसलिए त्वचा के अन्दर तथा खाली जगह के ऊपर भी स्पर्शेन्द्रिय का सद्भाव होने से शरीर के अन्दर शीतस्पर्श का अनुभव होना युक्तियुक्त है।' इन्द्रियों का पृथुत्व-जिह्वेन्द्विय के सिवाय शेष चारों इन्द्रियों का पृथुत्व (विशालता= विस्तार) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। जिह्वन्द्रिय का पृथुत्व अंगुलपृथक्त्वप्रमाण है, किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि स्पर्शेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियों का पृथुत्व (विस्तार) प्रात्मांगुल से समझना चाहिए। केवल स्पर्शेन्द्रिय का पथत्व उत्सेधांगूल से जानना चाहिए। चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं श्रवगाढद्वार 977. [1] सोइंदिए णं भंते ! कतिपएसिए पण्णते ? गोयमा ! अणंतपएसिए पण्णत्ते। [977-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेश वाली कही गई है ? [977-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) अनन्त-प्रदेशी कही गई है / [2] एवं जाव फासिदिए / [977-2] इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय (के प्रदेशों के सम्बन्ध में कहना चाहिए। 678. [1] सोइंदिए णं भंते ! कतिपएसोगाढे पण्णते? गोयमा! असंखेज्जपएसोगाढे पण्णते / [978-1 प्र. भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ कही गई है ? [978-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ कही है / [2] एवं जाव फासिदिए / [978-2] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक के विषय में कहना चाहिए। विवेचन--चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं अवगाढद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 977-978) में बताया गया है कि कौन-सी इन्द्रिय कितने प्रदेशों वाली है तथा कितने प्रदेशों में अवगाढ है ? अवगाहनादि की दृष्टि से अल्पबहुत्वद्वार-- 676. एएसि णं भंते ! सोइंदिय-चविखदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाणं प्रोगाहणटुयाए पएसट्टयाए प्रोगाहणपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवे चविखदिए प्रोगाहणट्ठयाए सोइदिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे, घाणिदिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे, जिमिदिए प्रोगाहणट्टयाए असंखेज्जगुणे, फासिदिए ओगाहणट्ठ१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 294 . 2. बही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 294 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org