Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 148 [ प्रज्ञापनासून [3] धाणिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिए पण्णते। [974-3 प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का आकार किस प्रकार का है ? [974-3 उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) अतिमुक्तकपुष्प के आकार की कही है / [4] जिभिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! खुरप्पसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [974-4 प्र.] भगवन् ! जिह्वन्द्रिय किस प्रकार की है ? [974-4 उ.] गौतम ! (जिह्वन्द्रिय) खुरपे के प्राकार की है / [5] फासिदिए गं पुच्छा। गोयमा ! गाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [974-5 प्र.] भगवन् ! स्पर्शेन्द्रिय का आकार कैसा है ? [974-5 उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय नाना प्रकार के आकार की कही गई है। विवेचन--प्रथम संस्थानद्वार-पांच इन्द्रियों के प्राकार का निरूपण--प्रस्तुत सूत्र में पांचों इन्द्रियों के आकार का निरूपण किया गया है। द्रव्येन्द्रिय का निर्वृत्तिरूप भेद हो संस्थान-प्रत्येक इन्द्रिय के विशिष्ट और विभिन्न संस्थानविशेष (रचनाविशेष) को निर्वृति कहते हैं / वह निर्वति भी दो प्रकार की होती है--बाह्य और प्राभ्यन्तर / बाह्य निर्वृति पर्पटिका आदि है / वह विविध---विचित्र प्रकार की होती है / अतएव उसको किसी एक नियत रूप में नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ-मनुष्य के श्रोत्र (कान) दोनों नेत्रों के दोनों पाश्र्व (बगल) में होते हैं / उसकी भौहें ऊपर के श्रवणबन्ध की अपेक्षा से सम होती हैं, किन्तु घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीक्ष्ण होते हैं। इस जातिभेद से इन्द्रियों की बाह्य निर्वृत्ति (रचना या आकृति) नाना प्रकार की होती है, किन्तु इन्द्रियों की प्रा र-निर्वत्ति सभी जीवों की समान होती है। यहाँ संस्थानादिविषयक प्ररूपणा इसी आभ्यन्तरनिर्वृत्ति को लेकर की गई है। केवल स्पर्शेन्द्रिय-निवृत्ति के बाह्य और आभ्यन्तर भेद नहीं करने चाहिए। वृत्तिकार ने स्पर्शेन्द्रिय को बाह्य संस्थानविषयक बताकर उसकी व्याख्या इस प्रकार की है- बाह्यनिर्वृत्तिखङ्ग के समान है और तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गलसमूहरूप आभ्यन्तरनिर्वृति है। द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पृथुत्वद्वार--- 675. [1] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते / [975-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का बाहल्य (जाडाई-मोटाई) कितना कहा गया है ? [975-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय का) बाहल्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org