Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 144] [प्रज्ञापनासूत्र [संग्रहणी गाथार्थ-] (प्रस्तुत प्रकरण में) आत्मप्रतिष्ठित क्षेत्र की अपेक्षा से, अनन्तानुबन्धी (प्रादि कषाय), प्राभोग (निर्वर्तित आदि-कषाय), अष्ट कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना तथा निर्जरा (का कथन किया गया है / ) विवेचन-जीवों के द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों के चयादि के कारणभूत चार कषायों का निरूपण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 964 से 671 तक) में समुच्चय जीवों तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा आठ कर्मप्रकृतियों के कालिक चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के कारणभूत चारों कषायों की पृथक-पृथक् प्ररूपणा की गई है / निष्कर्ष-भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में समुच्चय जीव तथा नारकों से लेकर वैमानिकों तक चौबीस दण्डकों के जीवों द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण आठ कर्मप्रकृतियों का चय, उपचय, बन्ध, उदोरणा, वेदना और निर्जरा की गई है, की जाती है और की जाएगी। चय, उपचय प्रादि शब्दों को शास्त्रीय परिभाषा-चय-कषायपरिणत होकर जीव द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का उपादान (ग्रहण) करना / उपचय-अपने अबाधाकाल के उपरान्त ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म-पुद्गलों के वेदन (भोगने) के लिए निषेक (कर्म-पुद्गलों की रचना) करना / निषेक रचना को कहते हैं / उसका क्रम इस प्रकार है-प्रथम स्थिति में सबसे अधिक द्रव्य, दूसरी स्थिति में विशेषहीन, तीसरी स्थिति में उसकी अपेक्षा भी विशेषहीन, इस प्रकार उत्तरोत्तर विशेषहीन-विशेषहीन कर्मपुद्गल वेदन के लिए स्थापित किए जाते हैं। बन्ध-जिन ज्ञानावरणीयादि कर्म-पुद्गलों को यथोक्तप्रकार से निषिक्त किया है, उनका विशिष्ट कषायपरिणति से निकाचन होना बन्ध कहलाता है। उदीरणा-कर्म अभी उदय में नहीं आए हैं, उन्हें उदीरणाकरण के द्वारा जो उदयावलिका में ले पाना। वेदना-अबाधाकाल समाप्त होने पर उदयप्राप्त या उदीरित करके-उदीरणा करके कर्म का उपभोग करना (भोग लेना) वेदना कहलाता है। निर्जरा-कर्मपुद्गलों का बेदन (भोग) के पश्चात्. अकर्मरूप में हो जाना अर्थात् आत्मप्रदेशों से झड़ जाना / प्रस्तुत प्रकरण में देशनिर्जरा का कथन किया गया है। सर्वनिर्जरा तो कषाय से रहित होकर योगों का सर्वथा निरोध करके मोक्षप्रासाद पर आरूढ़ होने वाले को होती है / देशनिर्जरा सभी जीव सदैव करते रहते हैं।' // प्रज्ञापनासूत्र : चौदहवाँ कषायपद समाप्त / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 292 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org