________________ चौदहवां कषायपद ] [139 क्रोधादि-जब किसी अन्य व्यक्ति या जीव-अजीव को अपने अनिष्ट में निमित्त मान कर जीव क्रोध प्रादि करता है, अथवा जब दूसरा कोई व्यक्ति प्राक्रोशादि करके क्रोध आदि उत्पन्न कराता है, भड़काता है, तब उसके प्रति जो क्रोधादि उत्पन्न होता है, वह परप्रतिष्ठित क्रोधादि है। (3) उभयप्रतिष्ठित क्रोधादि-कई बार जीव अपने पर भी क्रोधादि करता है और दूसरों पर भी करता है, जैसे-अपने और दूसरे के द्वारा किये गए अपराध के कारण जब कोई व्यक्ति स्वपर-विषयक क्रोधादि करता है, तब बह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है। (4) अप्रतिष्ठित क्रोधादि--जब कोई क्रोध आदि दुराचरण, आक्रोश आदि निमित्त कारणों के विना, निराधार ही केवल क्रोध आदि (वेदनीय) मोहनीय के उदय से उत्पन्न हो जाता है, तब वह क्रोधादि अप्रतिष्ठित होता है। ऐसा क्रोधादि न तो आत्मप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि वह स्वयं के दुराचरणादि के कारण उत्पन्न नहीं होता और न वह परप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि दूसरे का प्रतिक्ल आचरण, व्यवहार या अपराध न होने से उस क्रोधादि का कारण 'पर' भी नहीं होता, न यह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इसमें दोनों ही प्रकार के निमित्त नहीं होते / अतः यह क्रोधादि मोहनीय (वेदनीय) के उदय से बाह्य कारण के विना ही उत्पन्न होने वाला क्रोधादि है। ऐसा व्यक्ति बाद में कहता है-ओहो ! मैंने अकारण ही क्रोधादि किया; न तो कोई मेरे प्रतिकूल बोलता है, न ही मेरा कोई विनाश करता है।' कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण 661. [1] कतिहि णं भंते ! ठाणेहि कोहुप्पत्ती भवति ? गोयमा ! चहि ठाणेहि कोहुप्पत्तो भवति / तं जहा-खेत्तं पडुच्च 1 वत्थु पडुच्च 2 सरीरं पडुच्च 3 उहि पडुच्च 4 / [961-1 प्र.] भगवन् ! कितने स्थानों (कारणों) से क्रोध की उत्पत्ति होती है ? [961-1 उ.] गौतम ! चार स्थानों (कारणों) से क्रोध की उत्पत्ति होती है। वे इस प्रकार-(१) क्षेत्र (खेत या खुली जमोन) को लेकर, (2) वास्तु (मकान यादि) को लेकर, (3) शरीर के निमित्त से और (4) उपधि (उपकरणों-साधनसामग्री) के निमित्त से / [2] एवं णेरइयादीणं जाव वेमाणियाणं / 6961-2] इसी प्रकार नै रयिकों से लेकर वैमानिकों तक (क्रोधोत्पत्ति के विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए।) [3] एवं माणेण वि भायाए वि लोभेण वि / एवं एते वि चत्तारि दंडगा। [961-3] क्रोधोत्पत्ति के विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार मान, माया और लोभ की उत्पत्ति के विषय में भी उपर्युक्त चार कारण कहने चाहिए। इस प्रकार ये चार दण्डक (आलापक) होते हैं। विवेचन-क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण-प्रस्तुत सूत्र (961-1,2,3) में क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के क्षेत्र, वास्तु, शरीर ओर उपधि, ये चार-चार कारण प्रस्तुत किये गए हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 290 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org