________________ 138 ] [प्रज्ञापनासूत्र चौवीस दण्डकों में कषाय की प्ररूपणा 656. जेरइयाणं भंते ! कति कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पणत्ता / तं जहा-कोहकसाए जाव लोभकसाए / एवं जाव वेमाणियाणं / [959 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों में कितने कषाय होते हैं ? [959 उ.] गौतम ! उनमें चार कषाय होते हैं। वे इस प्रकार हैं-क्रोधकषाय से (लेकर) लोभकषाय तक / इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में चारों कषाय पाए जाते हैं।) विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कषायों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (956) में नैरयिकों से वैमानिकों तक समस्त संसारी जीवों में इन चारों कषायों का सद्भाव बताया है। कषायों के प्रतिष्ठान की प्ररूपणा--- 960. [1] कतिपतिट्ठिए णं भंते ! कोहे पणते ? गोयमा ! चउपतिदुिए कोहे पण्णते। तं जहा-प्रायपतिट्ठिए 1 परपतिट्टिए 2 तदुभयपतिट्ठिए 3 अप्पतिट्टिए 4 / [660-1 प्र.] भगवन् ! क्रोध कितनों पर प्रतिष्ठित (आश्रित) है ? (अर्थात्-किस-किस आधार पर रहा हुअा है ? ) f960-1 उ.] गौतम ! क्रोध को चार (निमित्तों) पर प्रतिष्ठित (आधारित) कहा है। वह इस प्रकार-(१) आत्मप्रतिष्ठित, (2) परप्रतिष्ठित, (3) उभय-प्रतिष्ठित और (4) अप्रतिष्ठित / [2] एवं रइयादीणं जाव वेमाणियाणं दंडो। (960-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों) के विषय में दण्डक (पालापक कहना चाहिए / ) [3] एवं माणेणं दंडो, मायाए दंडो, लोभेणं वंडो / [960-3] क्रोध की तरह मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से भी (प्रत्येक का) एक-एक दण्डक (मालापक कहना चाहिए / ) विवेचन--क्रोधादि चारों कषायों के प्रतिष्ठान-प्राधार को प्ररूपणा–प्रस्तुत सुत्र (9601, 2, 3) में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों को चार-चार स्थानों पर प्रतिष्ठितप्राधारित बताया गया है। चतुष्प्रतिष्ठित क्रोधादि-(१) प्रात्मप्रतिष्ठित क्रोधादि-अपने आप पर ही आधारित होते हैं / इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं आचरित किसी कर्म के फलस्वरूप जब कोई जीव अपना इहलौकिक अनिष्ट (अपाय = हानि) देखता है, तब वह अपने पर क्रोध, मान, माया या लोभ करता है, वह आत्मप्रतिष्ठित क्रोधादि है। यह क्रोध आदि अपने ही प्रति किया जाता है। (2) पर प्रतिष्ठित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org