Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 140 ] [ प्रज्ञापनासून क्षत्र, वास्तु, शरीर और उपधि, क्रोधादि की उत्पत्ति के कारण क्यों ?-क्षेत्र का अर्थ खेत या जमीन होता है, परन्तु नारकों के लिए नैरयिकक्षेत्र, तिर्यञ्चों के लिए तिर्यक्षेत्र, मनुष्य के लिए मनुष्यक्षेत्र के निमित्त एवं देवों के लिए देवक्षेत्र के निमित्त से क्रोधादि कषायोत्पत्ति समझनी चाहिए। 'वत्थु' के दो अर्थ होते हैं-वास्तु और वस्तु / वास्तु का अर्थ मकान, इमारत, बंगला, कोठी, महल आदि और वस्तु का अर्थ है--सजीव, निर्जीव पदार्थ / महल, मकान आदि को लेकर भी क्रोधादि उमड़ते हैं / सजीव वस्तु में माता, पिता, स्त्री, पुत्र या मनुष्य तथा किसी अन्य प्राणी को लेकर क्रोध, संघर्ष, अभिमान आदि उत्पन्न होते हैं। निर्जीव वस्तु पलंग, सोना, चांदी, रत्न, माणक, मोती, वस्त्र, आभूषण प्रादि को लेकर क्रोधादि उत्पन्न होते हैं। दुःस्थित या विरूप या सचेतन-अचेतन शरीर को लेकर भी क्रोधादि उत्पन्न होते हैं / अव्यवस्थित एवं बिगड़े हुए उपकरणादि को लेकर अथवा चौरादि के द्वारा अपहरण किये जाने पर क्रोधादि उत्पन्न होता है। जमीन, मकान, शरीर और अन्य साधनों को जब किसी कारण से हानि या क्षति पहुँचती है तो क्रोधादि उत्पन्न होते हैं। यहाँ 'उपधि' में जमीन, मकान तथा शरीर के सिवाय शेष सभी वस्तुओं का समावेश समझ लेना चाहिए।' कषायों के भेद-प्रभेद 662. [1] कतिविहे णं भंते ! कोहे पण्णत्ते ? गोयमा! चउन्विहे कोहे पण्णत्ते / तं जहा-अणंताणुबंधी कोहे 1 अप्पच्चक्खाणे कोहे 2 पच्चक्खाणावरणे कोहे 3 संजलणे कोहे 4 / [962-1 प्र.] भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? [962-1 उ.] गौतम ! क्रोध चार प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार-(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (2) अप्रत्याख्यान क्रोध, (3) प्रत्याख्यानावरण क्रोध और (4) संज्वलन क्रोध / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [962-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों) में (क्रोध के इन चारों प्रकारों की प्ररूपणा समझनी चाहिए।) [3] एवं माणेणं मायाए लोभेणं / एए वि चत्तारि दंडया / [962-3] इसी प्रकार मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से, (इन चार-चार भेदों का तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक में इनके पाए जाने का कथन करना चाहिए।) ये भी चार दण्डक होते हैं। 663. [1] कतिविहे गं भंते ! कोहे पण्णते? गोयमा ! चउम्बिहे कोहे पण्णते। तं जहा-पाभोगणिवत्तिए प्रणाभोगणिव्यत्तिए उवसंते प्रणुवसंते। [963-1 प्र.] भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 290-291 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 559 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org