Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेरहवाँ परिणामपद [131 अज्ञान वाले होते हैं; दर्शनपरिमाण से (इनमें) तीनों ही दर्शन (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन) होते हैं; चारित्रपरिणाम से (ये) चारित्री भी होते हैं, अचारित्री भी और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी होते हैं ; वेदपरिणाम से (ये) स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक एवं नपुसकवेदक भी तथा अवेदक भी होते हैं। विवेचन--मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (643) में मनुष्यों (समुच्चय मनुष्यजाति) को गति आदि दसों परिणामों की अपेक्षा से विचारणा की गई है। विशेषता-मनुष्य कई परिणामों से अन्य जीवों से विशिष्ट हैं तथा कई परिणामों से अतीत भी होते हैं, जैसे अनिन्द्रिय, अकषायो, अलेश्यो, अयोगी, केवलज्ञानो, मनःपर्यवज्ञानी, अवेदक आदि / ' वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा 944. वाणमंतरा गतिपरिणामेणं देवगइया जहा असुरकुमारा (सु. 636 [1]) / [944] वाणव्यन्तर देव गतिपरिणाम से देवगतिक हैं, शेष (समस्त परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. 939-1 में उल्लिखित) असुरकुमारों की तरह (समझना चाहिए / ) 145. एवं जोतिसिया वि / णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा। [945] इसी प्रकार ज्योतिष्कों के समस्त परिणामों के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से (वे सिर्फ) तेजोलेश्या वाले होते हैं। ___646. वेमाणिया वि एवं चेव। णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि।से तं जीवपरिणामे। [946] वैमानिकों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि लेश्यापरिणाम से वे तेजोलेश्या वाले भी होते हैं, पद्मलेश्या वाले भी और शुक्ललेश्या वाले भी होते हैं। यह जीवप्ररूपणा हुई। विवेचन-वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को परिणामसम्बन्धी प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. 644 में वाणव्यन्तर देवों की, सू. 945 में ज्योतिष्क देवों को एवं सू. 646 में वैमानिक देवों को परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई है। ज्योतिठकों और वैमानिकों के लेश्यापरिणाम में विशेषता-ज्योतिष्कों में सिर्फ तेजोलेश्या ही होती है, जबकि वैमानिकों में तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं; तीन अशुभ लेश्याएँ नहीं होती। 1. पण्णवणासुत्त भा. 1 (मूलपाठ), पृ. 232 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 (ख) 'पीतान्तलेश्या:'--तत्वार्थ. अ. 4, सू. 7 (ग) पीतपद्मशुक्ललेश्याः द्वि-त्रि-शेषेषु / --तत्त्वार्थ. अ. 4, सू. 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org