Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 130] [प्रज्ञायनासूत्र उत्पन्न हो सकते हैं / तेजस्कायिक-वायुकायिकों में नारकों की तरह प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ हो होती हैं / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में शुक्ललेश्या तक छहों लेश्याएँ सम्भव हैं / योगपरिणाम से नारकों में तीनों योग पाए जाते हैं, जबकि पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय सिर्फ काययोगी होते हैं, विकलेन्द्रिय वचनयोगी और काययोगी तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तीनों योगों वाले होते हैं। ज्ञानपरिणाम से नारक तीन ज्ञान वाले होते हैं, जबकि एकेन्द्रियों में ज्ञानपरिणाम नहीं होता, क्योंकि पृथ्वीकायिकादि पांचों में सास्वादन सम्यक्त्व का भी प्रागमों में निषेध है, इसलिए इनमें ज्ञान का निषेध किया गया है। विकलेन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी भी होते हैं, क्योंकि कोई-कोई द्वीन्द्रिय जीव करणापर्याप्त-अवस्था में सास्वादनसम्यक्त्वी भी पाए जाते हैं, इसलिए उन्हें ज्ञानद्वयपरिणत कहा है। पंचेन्द्रियतिर्यचों को नारकों की तरह तीन ज्ञान होते हैं। अज्ञानपरिणाम से नारक तीनों अज्ञानों से परिणत होते हैं, जबकि सम्यक्त्व के अभाव में एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रिय जीवों में मतिअज्ञान और श्रु तप्रज्ञान ये दो अज्ञान होते हैं, विभंगज्ञान नहीं; तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में तीनों अज्ञान होते हैं। दर्शनपरिणाम से नारकजीव तीनों दृष्टियों से युक्त होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय सिर्फ मिथ्याष्टि, विकलेन्द्रिय सास्वादनसम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा तिर्यचपंचेन्द्रिय तीनों दृष्टियों वाले होते हैं। वेदपरिणाम की दृष्टि से नारकों की तरह एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीव नपुसकवेदी ही होते हैं, जबकि तिर्यंचपंचेन्द्रिय तीनों वेद (स्त्री-पुरुषनपुसकवेद) वाले होते हैं। चारित्रपरिणाम से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में तो नारकों की तरह चारित्रपरिणाम सर्वथा असम्भव है, तिर्यंचपंचेन्द्रियों में देशतः चारित्रपरिणाम सम्भव है। ये परिणाम समुच्चय नारकों आदि की अपेक्षा से कहे गए हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए / यही नारकों से इनमें परिणामसम्बन्धी अन्तर है / मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा 943. मणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचेंदिया अणिदिया कि, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि जाव प्रकसाई वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि जाव प्रलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि जाव अजोगी वि, उपयोगपरिणामेणं जहा रइया (सु. 638), णाणपरिणामेणं आभिणिबोहियणाणी वि जाव केवलणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं तिण्णि वि अण्णाणा, दसणपरिणामेणं तिन्नि वि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरिती वि अचरित्तो वि चरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इस्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि नपुंसगवेयगा वि अवेयगा वि / 943) मनुष्य, गतिपरिणाम से मनुष्यगतिक हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय भी; कषायपरिणाम से क्रोधकषायी, मानकषायी. मायाकषायी, लोभकषायी तथा अकषायी भी होते हैं; लेश्यापरिणाम से कृष्णलेश्या से शुक्ललेश्या वाले तक तथा अलेश्या भी होते हैं; योगपरिणाम से मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी भी होते हैं; उपयोगपरिणाम से (सू. 938 में उल्लिखित) नैरयिकों के (उपयोगपरिणाम के समान हैं; ज्ञानपरिणाम से (वे) आभिनिबोधिकज्ञानी से यावत् केवलज्ञानी तक भी होते हैं; अज्ञानपरिणाम से (इनमें) तीनों ही 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ), पृ. 230-231 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org