________________ 128 ] प्रज्ञापनातून विवेचन-असुरकुमारादि भवनवासियों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (939) में असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक दस प्रकार के भवनवासी देवों के दशविध परिणामों की प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर नारकों के अतिदेशपूर्वक की गई है। भवनवासी देवों का नारकों से कुछ परिणामों में अन्तर-भवनवासी देवों के अधिकतर परिणाम तो नैरयिकों के समान ही होते हैं, कुछ परिणामों में अन्तर है, जैसे कि वे गतिपरिणाम से देवगतिवाले होते हैं / लेश्यापरिणाम की अपेक्षा से नारकों की तरह उनमें भी प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ होती हैं, किन्तु महद्धिक भवनवासी देवों के चौथी तेजोलेश्या भी होती है / वेदपरिणाम की दृष्टि से वे नारकों की तरह नपुसकवेदी नहीं होते, क्योंकि देव नपुसक नहीं होते ; ' अत: भवनवासियों में स्त्रोवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं।' एकेन्द्रिय से तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा 940. [1] पुढविकाइया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, इंदियपरिणामेणं एगिदिया, सेसं जहा परइयाणं (सु. 638) / णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं कायजोगी, णाण. परिणामो णस्थि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयअण्णाणी वि, दसणपरिणामेणं मिच्छट्ठिी / सेसं तं चेव / [940-1] पृथ्वीकायिकजीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से एकेन्द्रिय हैं, शेष (सब परिणामों को वक्तव्यता) नैरयिकों के समान (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि लेश्यापरिणाम से (ये) तेजोलेश्या वाले भी होते हैं / योगपरिणाम से (ये सिर्फ) काययोगी होते हैं, इनमें ज्ञानपरिणाम नहीं होता। अज्ञानपरिणाम से ये मति-अज्ञानी भी होते हैं, श्रुत-अज्ञानी भी; (किन्तु विभंगज्ञानी नहीं होते / ) दर्शनपरिणाम से (ये केवल) मिथ्यादृष्टि होते हैं, (सम्यग्दृष्टि या सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते / ) शेष (सब वर्णन) उसी प्रकार (पूर्ववत् जानना चाहिए / ) [2] एवं प्राउ-वणफइकाइया वि / [940-2] इसी प्रकार (को परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिकों की (समझनी चाहिए।) [3] तेऊ वाऊ एवं चेव / णवरं लेस्सापरिणामेणं जहा रहया (सु. 638) / [940-3 तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों की भी (परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) इसी प्रकार है। विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा (सू. 938 में उल्लिखित) नैरयिकों के समान (तीन लेश्याएँ समझनी चाहिए।) 641. [1] बेइंदिया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, इंदियपरिणामेणं बेइंदिया, सेसं जहा णेरइयाणं (सु. 638) / णवरं जोगपरिणामणं वइयोगी वि काययोगी वि, गाणपरिणामेणं प्राभिणि 1. 'न देवा:'-तत्वार्थ. अ. 2 सु. 51 2. प्रज्ञापनामूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org