Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेरहवां परिणामपद ] [ 129 बोहियणाणो वि सुयणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयअण्णाणी वि, णो विभंगणाणी, दसणपरिणामेणं सम्मद्दिट्ठी वि मिच्छट्टिी वि, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठी / सेसं तं चेव / [141-1] द्वीन्द्रियजीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से (वे) द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले) होते हैं। शेष (सब परिणामों का निरूपण) (सू. 638 में उल्लिखित) नैरयिकों की तरह (समझना चाहिए। विशेषता यह है कि (वे) योगपरिणाम से वचनयोगी भी होते हैं, काययोगी भी; ज्ञानपरिणाम से आभिनिबोधिक ज्ञानी भी होते हैं और श्र तज्ञानी भी; अज्ञानपरिणाम से मतिअज्ञानी भी होते हैं और श्रत-अज्ञानी भी; (किन्तु वे) विभंगज्ञानी नहीं होते। दर्शनपरिणाम से वे सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी; (किन्तु) सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते / शेष (सब वर्णन) उसी तरह (पूर्वोक्त नैरयिकवत् समझना चाहिए / ) [2] एवं जाव चरिदिया / णवरं इंदियपरिवड्डी कायव्वा / [641-2] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियजीवों (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की वृद्धि कर लेनी चाहिए। 942. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया गतिपरिणामेणं तिरियगतीया। सेसं जहा रइयाणं (सु. 938) / णवरं लेस्सापरिणामेणं जाव सुक्कलेस्सा वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरिती, अचरित्ती वि चरित्ताचरित्तो वि, वेदपरिणामेणं इस्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि णपुसगवेयगा वि / [942] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं / शेष (सू. 638 में) जैसे नैरयिकों का (परिणामसम्बन्धी कथन) है; (वैसे ही समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से (वे कृष्णलेश्या से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या वाले भी होते हैं। चारित्रपरिणाम से वे (पूर्ण) चारित्री नहीं होते, प्रचारित्री भी होते हैं और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी; वेदपरिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होते हैं, पुरुषवेदक भी और नपुंसकवेदक भी होते हैं। एकेन्द्रिय से तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. 640 में एकेन्द्रियों के, सू. 941 में विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों) तथा सू. 942 में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़ कर नैरयिकजीवों के समान अतिदेशपूर्वक की गई है। इनसे नैरयिकों के परिणामसम्बन्धी निरूपण में अन्तर—गतिपरिणाम से नैरयिक नरकगतिक होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक तिर्यञ्चगतिक होते हैं; इन्द्रियपरिणाम से नैरयिक पंचेन्द्रिय होते हैं, जबकि पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय सिर्फ एक स्पर्शेन्द्रिय वाले, द्वीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय एवं रसनेन्द्रिय, इन दो इन्द्रियों वाले, त्रीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, एवं घ्राणेन्द्रिय, इन तीन इन्द्रियों वाले तथा चतुरिन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणन्द्रिय एवं चक्षुरिन्द्रिय, इन चार इन्द्रियों वाले एवं तिर्यंचपंचेन्द्रिय पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र) वाले होते हैं। लेश्यापरिणाम से–नारकों में आदि की तीन लेश्याएँ होती हैं, जबकि (पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिक) एकेन्द्रियों में चौथी तेजोलेश्या भी होती है। क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक तक के देव भी इनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org