________________ तेरहवां परिणामपद [135 साथ विषमगुण होते हैं, तब विषममात्रा होने के कारण उनका परस्पर सम्बन्ध (बन्ध) होता है / निष्कर्ष यह है कि बन्ध विषम मात्रा होने पर ही होता है। अतः विषम मात्रा का स्पष्टीकरण करने हेतु शास्त्रकार फिर कहते है–यदि स्निग्धपरमाणु आदि का, स्निग्धगुण बाले परमाण आदि के साथ बन्ध हो सकता है तो वह नियम से दो ग्रादि अधिक (द्वयाधिक) गुण वाले परमाण के साथ ही होता है। इसी प्रकार यदि रूक्षगुण वाले परमाणु आदि का रूक्षगुण वाले परमाणु आदि के साथ बन्ध होता है, तब वह भी इसी नियम से दो, तीन, चार आदि अधिक गुण वाले के साथ ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। जब स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध होता है, तब किस नियम से होता है ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं-स्निग्धपरमाणु आदि का रूक्षपरमाणु प्रादि के साथ बन्ध जघन्य गण को छोड कर होता है। जघन्य का प्राशय है-एकगुणस्निग्ध और एकगुणरूक्ष / इनको छोड़कर, शेष दो गुण वाले (स्निग्ध आदि) का दो गुण वाले रूक्ष आदि के साथ बन्ध होता है, चाहे वे दोनों (स्निग्ध और रूक्ष) सममात्रा में हों या विषममात्रा में हों।' गतिपरिणाम को व्याख्या—गमनरूप परिणमन गतिपरिणाम है। वह दो प्रकार का हैस्पृशद्गतिपरिणाम और अस्पृशद्गतिपरिणाम / बीच में आने वाली दूसरी वस्तुओं को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, उसे स्पृशद्गति कहते हैं। उस गतिरूप परिणाम को स्पृशद्गतिपरिणाम दाहरणार्थ-जल पर प्रयत्नपूर्वक तिरछी फंकी हई ठोकरी बीच-बीच में जल का स्पर्श करती हुई गति करती है, यह उस ठीकरी का स्पशद्गतिपरिणाम है। जो वस्तु बीच में आने वाले किसी भी पदार्थ को स्पर्श न करती हुई गमन करतो है, वह उसको अस्पृशद्गति है / वह अस्पृशद्गतिरूप परिणाम अस्पृद्गतिपरिणाम है। जैसे—सिद्ध (मुक्त) जीव सिद्धशिला की अोर गमन करते हैं, तब उनको गति अस्पृशद्गति होती है / अथवा प्रकारान्तर से गतिपरिणाम के दो भेद प्रतिपादित करते हैं—दीर्घगतिपरिणाम और ह्रस्वगतिपरिणाम / प्रतिदूरवर्ती देश की प्राप्ति का कारणभूत जो परिणाम हो, वह दीर्घगतिपरिणाम है और निकटवर्ती देशान्तर की प्राप्ति का कारणभूत जो परिणाम हो, वह ह्रस्वगतिपरिणाम कहलाता है। इनकी व्याख्या पूर्वोक्तवत्--संस्थानपरिणाम, भेदपरिणाम, वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाम, रसपरिणाम और स्पर्शपरिणाम की व्याख्या पहले पर्यायपद, भाषापद आदि में की जा चुकी है। अगुरुलधुपरिणाम–'कम्मग-मण भासाई एयाई प्रगुरुलघुयाई' अर्थात्-कार्मणवर्गणा, मनोवर्गणा एवं भाषावर्गणा, ये अगुरुलधु होते हैं, इस आगमवचन के अनुसार उपर्युक्त पदार्थों को तथा अमूर्त आकाशादि द्रव्यों को भी अगुरुलधु समझना चाहिए। प्रसंगवश यहाँ गुरुलघुपरिणाम को भी समझ लेना चाहिए। 3 'औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस द्रव्य गुरुलघु होते हैं / // प्रज्ञापनासूत्र : तेरहवां परिणामपद समाप्त / / कहते हैं 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 288-289 (ख) 'स्निग्ध-रूक्षत्वाद् बन्धः'-तत्त्वार्थसूत्र अ. 5, सू. 32 (ग) 'न जघन्यगुणानाम्' 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' 'द्वयधिकादिगुणानां तु' -तत्त्वार्थसूत्र अ. 5, सू. 33, 34, 35. 2. इसके लिए देखिये प्रज्ञापना. का पर्यायपद और भाषापद प्रादि / 3. 'ओरालिय-वेउम्विय-आहारग-तेय गुरुलहूवश्वा' ..-प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र 289 में उद्धत / 4. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 289 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org