________________ 126] [ प्रज्ञापनासूत्र चारित्रपरिणाम-जीव का सामायिक-आदि चारित्ररूप परिणाम चारित्रपरिणाम है / (10) वेदपरिणाम--स्त्रोवेद आदि के रूप में जीव का परिणमन वेदपरिणाम दशविध जीवपरिणामों के क्रम की संगति-औदयिक अादि भाव के आश्रित सभी भाव गतिपरिणाम के विना प्रादुर्भूत नहीं होते / इसलिए सर्वप्रथम गतिपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है / गतिपरिणाम के होने पर इन्द्रियपरिणाम अवश्य होता है, इसलिए उसके पश्चात् इन्द्रियपरिणाम कहा है / इन्द्रियपरिणाम के पश्चात् इष्ट-अनिष्टविषय के सम्पर्क से राग-द्वषपरिणाम उत्पन्न होता होता है / अत: इसके बाद कषायपरिणाम कहा है। कषायपरिणाम लेश्यापरिणाम का अविनाभावी है किन्तु लेश्यापरिणाम कषायपरिणाम के विना भी होता है / इसलिए कषायपरिणाम के पश्चात् लेश्यापरिणाम का निर्देश है। लेश्यापरिणाम योगपरिणामात्मक है, इसलिए लेश्यापरिणाम के अनन्तर योगपरिणाम का निर्देश किया है। योगपरिणत संसारी जीवों का उपयोग-परिणाम होता है, इसलिए योगपरिणाम के पश्चात् उपयोगपरिणाम का क्रम है। उपयोगपरिणाम होने पर ज्ञानपरिणाम उत्पन्न होता है / इस कारण उपयोगपरिणाम के अनन्तर ज्ञानपरिणाम कहा है / ज्ञानपरिणाम के दो रूप हैं-सम्यग्ज्ञानपरिणाम और मिथ्याज्ञानपरिणाम / ये दोनों परिणाम क्रमशः सम्यक्त्व, मिथ्यात्व (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन) के विना नहीं होते, इसलिए ज्ञानपरिणाम के अनन्तर दर्शनपरिणाम कहा है। सम्यग्दर्शन-परिणाम के होने पर जीवों द्वारा जिनभगवान् के वचनश्रवण से अपूर्व-अपूर्व संवेग का आविर्भाव होने पर चारित्रावरणकर्म के क्षय-क्षयोपशम से चारित्रपरिणाम उत्पन्न होता है / इसलिए दर्शनपरिणाम के अनन्तर चारित्रपरिणाम कहा गया है / चारित्रपरिणाम के प्रभाव से महासत्त्वपुरुष वेदपरिणाम का विनाश करते हैं, इसलिए चारित्रपरिणाम के अनन्तर वेदपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है।' नैरयिकों में दशविध-परिणामों को प्ररूपरणा--- ___638. रइया गतिपरिणामेणं गिरयगतिया, इवियपरिणामेणं पंचिदिया, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि जाव लोभकसाई वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि णीललेस्सा वि काउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि वइजोगी वि कायजोगी वि, उवयोगपरिणामेणं सामारोव उत्ता वि अणागारोवउत्ता वि, णाणपरिणामेणं ग्रामिणिबोहियणाणी वि सुथणाणी वि प्रोहिणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयप्रणाणी वि विभंगणाणी वि, दंसणपरिणामेणं सम्मद्दिट्टी वि मिच्छहिट्ठी वि सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरित्तो णो चरित्ताचरित्तो अचरित्ती, वेदपरिणामेणं णो इथिवेयगा णो पुरिसबेयगा णपुसगवेयगा। [938] नैरयिक जीव गति-परिणाम को अपेक्षा नरकगतिक (नरकगति वाले) हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय हैं: कषाय-परिणाम से क्रोधकषायी यावत लोभकपायी हैं: लेश्या-परिणाम से कृष्णलेश्यावान् भी हैं, नीललेश्यावान् भो और कापोतलेश्यावान् भी हैं; योग-परिणाम से वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी भी हैं, उपयोग-परिणाम से साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) वाले भी हैं और अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) वाले भी हैं ; ज्ञानपरिणाम से (वे) आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी भी हैं, श्रुतज्ञानी भी हैं और अवधिज्ञानी भी हैं, अज्ञानपरिणाम से (वे) मति-अज्ञानी भी हैं, 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 285 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org