________________ बारहवां शरीरपद ] [ 115 विवेचन–मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण-प्रस्तुत सूत्र (921-1-4) में मनुष्यों के बद्ध और मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है। मनुष्यों के बद्ध-मुक्त शरीरों को प्ररूपणा-मनुष्यों के बद्ध प्रौदारिक शरीर----कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं / इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य दो प्रकार के होते हैं---गर्भज और सम्मूच्छिम / गर्भज मनुष्य (प्रयाहरूप से) सदा स्थायी रहते हैं / कोई भी काल ऐसा नहीं होता, जो गर्भज मनुष्यों से रहित हो; किन्तु सम्मूच्छिम मनुष्य कभी होते हैं, कदाचित् उनका सर्वथा अभाव हो जाता है; क्योंकि सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्कृष्ट प्रायु भी अन्तर्मुहूर्त की होती है। उनकी उत्पत्ति का अन्तर (विरहकाल) उत्कृष्ट चौबीस मुहर्त प्रमाण कहा गया है। प्रतएव जिस काल में सम्मच्छिम मनष्य सर्वथा विद्यमान नहीं होते. अपित केवल गर्भज मनुष्य ही होते हैं, उस समय बद्ध औदारिक शरीर संख्यात ही होते हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों की संख्या संख्यात ही है; वे महाशरीररूप में या प्रत्येकशरीररूप में होने से परिमितक्षेत्रवर्ती होते हैं। जब सम्मूच्छिम मनुष्य विद्यमान होते हैं, तब मनुष्यों की संख्या पसंख्यात होती है। सम्मूच्छिम मनुष्य उत्कृष्टत: श्रेणी के असंख्यातवें भागवर्ती प्राकाश प्रदेशों की राशि-प्रमाण होते हैं / इसी दृष्टि से मूलपाठ में कहा गया है-'जहन्नपदे संखेब्जा / ' जघन्यपद का अभिप्राय है-जहाँ सबसे थोड़े मनुष्य पाए जाते जाते हैं / प्रश्न होता है-- क्या वे (सबसे कम मनुष्य) सम्मूच्छिम होते हैं या गर्भज? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि गर्भज मनुष्य ही होते हैं, जो सदैव स्थायी होने से सम्मूच्छिमों के अभाव में सबसे थोड़े पाए जाते हैं। उत्कृष्टपद में गर्भज और सम्मूच्छिम दोनों का ही ग्रहण होता है। इस जघन्यपद से यहां संख्यात मनुष्यों का ग्रहण होता है; किन्तु संख्यात के भी संख्यातभेद होते हैं, इसलिए संख्यात कहने से कितनी संख्या है, इसका विशेष बोध नहीं होता; इसलिए शास्त्रकार विशिष्ट संख्या निर्धारित करते हैंसंख्यातकोटाकोटी हैं। इस परिमाण को और अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से कहते हैं-'तीन यमलपद के ऊपर और चार यमलपद से नीचे।' इसका प्राशय इस प्रकार है oN की संख्या का प्रतिपादन करने वाले उनतीस (29) अंक आगे कहे जाएंगे। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आठ-आठ अंकों की एक 'यमलपद' संज्ञा है / अत: चौबीस (24) अंकों के तीन यमलपद हुए। इसके पश्चात् (24 अंकों के बाद) पांच अंक-स्थान शेष रहते हैं / किन्तु चौथे यमलपद की पूर्ति आठ अंकों से होती है, उसमें तीन अंकस्थान कम हैं / अतः चौथा यमलपद पूरा नहीं होता / इसी कारण यहाँ मनुष्यसंख्याप्रतिपादक 26 अंकों के लिए कहा गया है-'तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचे' अर्थात् 29 अंक प्रमाण / अथवा दो वर्ग मिलकर एक यमलपद होता है / चार वर्ग मिलकर दो यमलपद होते हैं, तथा छह वर्ग मिल कर तीन यमलपद होते हैं और चार वर्ग मिल कर चार यमलपद होते हैं / अत: छह वर्गों के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे कहें, चाहे तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचे कहें, एक ही बात हुई। अब इससे भी अधिक स्पष्ट रूप से मनुष्यों की संख्या का प्रतिपादन करते हैं—पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर जो राशि निष्पन्न होती है, जघन्यपद में उस राशिप्रमाण मनुष्यों की संख्या है / एक को एक के साथ गुणाकार करने पर गुणनफल एक ही पाता है, संख्या में वृद्धि नहीं होती, अत: 'एक' की वर्ग के रूप में गणना नहीं होती। किन्तु दो का दो के साथ गुणाकार करने पर 4 संख्या पाती है, यह प्रथम वर्ग हुा / चार के साथ चार को गुणा करने पर 16 संख्या आई, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org