________________ बारहवां शरौरपद [117 चौथा 1 छेदनक होता है / तीसरा वर्ग 256 संख्या का है। अतः इसके 8 छेदनक होते हैं। इसी प्रकार चौथे वर्ग के 16 छेदनक, पांचवें वर्ग के 32 छेदनक और छठे वर्ग के 64 छेदनक होते हैं / इस प्रकार सब छेदनकों का योग करने पर कुल 66 छेदनक होते हैं, जो कि पांचवें वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर होते हैं। जिस-जिस वर्ग का जिस-जिस वर्ग के साथ गुणाकार किया जाता है, उस वर्ग में गुण्य और गुणक दोनों वर्गों के छेदनक होते हैं। जैसे—प्रथम वर्ग के साथ दूसरे वर्ग का गुणाकार करने पर छह छेदनक होते हैं / सोलह संख्या के द्वितीय वर्ग का चार संख्या वाले प्रथम वर्ग के साथ गुणाकार करने पर (16 4 4 = 64) चौसठ संख्या पाती है / उसका प्रथम छेदनक 32, दूसरा छेदनक 16, तीसरा छेदनक 8, चौथा छेदनक 4, पांचवाँ छेदनक 2, और छठा छेदनक 1 होता है / इस प्रकार 6 छेदनक होते हैं / इसी प्रकार आगे सर्वत्र समझ लेना चाहिए / इसी प्रकार पांचवें वर्ग से छठे वर्ग का गुणाकार करने पर 96 भंग होते हैं, यह सिद्ध हुआ / अथवा किसी एक अंक को स्थापित करके उसे छयानवे वार दुगुना-दुगुना करने पर यदि उतनी ही राशि आ जाए तो वह राशि छयानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है। यह जघन्यपद में मनुष्यों को संख्या कही गई। उत्कृष्टपद में मनुष्यों की संख्या--इस प्रकार है-उत्कृष्टपद में मनुष्यों की संख्या असंख्यात है। काल को अपेक्षा से परिमाण---एक-एक समय में यदि एक-एक मनुष्य के शरीर का अपहार किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में उसका पूर्ण रूप से अपहार होता है। क्षेत्र को अपेक्षा से-एक रूप प्रक्षिप्त करने पर मनुष्यों से पूर्ण एक श्रेणी का अपहार होता है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट पद में जो मनुष्य हैं, उनमें असत्कल्पना से एक मिला देने पर एक सम्पूर्ण श्रेणी का अपहार हो जाता है। क्षेत्र और काल से उस श्रेणी के अपहार की मार्गणा इस प्रकार हैकालतः—असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में असंख्यात मनुष्यों का अपहार होता है / क्षेत्रतः वे अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल-प्रमाण होते हैं। असत्कल्पना से अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि 256 होती है, जिसका प्रथम वर्गमूल सोलह होता है। उसका तृतीय वर्गमूल दो के साथ गुणा करने पर प्रदेशों की राशि (1642= 32) बत्तीस आती है। इतनी संख्या वाले खण्डों से अपहृत की गई श्रेणी पूर्णता तक पहुंच जाती है, और यही मनुष्यों को संख्या की पराकाष्ठा है। प्रश्न होता है-एक श्रेणी का उपर्युक्त प्रमाण वाले खण्डों से अपहार करने में असंख्यात उत्सपिणियाँ-अवसपिणियां कैसे लग जाती हैं ? इसका समाधान इस प्रकार है-क्षेत्र अतिसूक्ष्म होता है / कहा भी है-काल सूक्ष्म होता है. उससे भी सूक्ष्मतर क्षेत्र होता है; क्योंकि अंगुल मात्र श्रेणो में असंख्यात उत्सपिणियाँ समा जातो है।' अर्थात्-एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेशराशि होती है, वह असंख्यात उत्सपिणियों के समयों से भी अधिक होती है। मनुष्यों के मुक्त औदारिक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरों के समान समझनी चाहिए। __ मनुष्यों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीर प्रादि की प्ररूपणा--मनुष्यों के बद्ध वैक्रियशरीर संख्यात हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों में ही वैक्रियलब्धि सम्भव है, और वह भी किसी-किसी में, सबमें नहीं। 1. सुहुमो स होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खेत्तं / अंगुलसेढीमेत्ते उस्सप्पिणीग्रो असंखेज्जायो / -प्रज्ञा. म. वृ., पत्रांक 282 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org