________________ 118 1 [प्रज्ञापनासूत्र इनके मुक्त वैक्रिय शरीरों का कथन औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान ही समझना चाहिए / मनुष्यों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों की प्ररूपणा औधिक बद्धमुक्त आहारकशरीरों के समान समझती चाहिए / मनुष्यों के बद तैजस और कार्मण शरीर इन्हीं के बद्ध सौदारिक शरीर के समान समझने चाहिए / मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तेजस-कार्मण शरीरों के समान करनी चाहिए / वागव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के बद्धमुक्त औदारिकादि शरीरों को प्ररूपणा--- 622. वाणमंतराणं जहा रइयाणं पोरालिया प्राहारगा य। वेउब्वियसरीरगा जहा रइयाणं, णवरं तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई संखेज्जनोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स / मुक्केल्लया जहा प्रोहिया पोरालिया (सु. 610 [1]) / तेया-कम्मया जहा एएसि चेव वेउब्विया / [922] वाणव्यन्तर देवों के बद्ध-मुक्त औदारिक और आहारक शरीरों का निरूपण नैरयिकों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक एवं प्राहारक शरीरों के समान जानना चाहिए / इनके वैक्रिय शरीरों का निरूपण नैरयिकों के समान है / विशेषता यह है कि उन (असंख्यात) श्रेणियों की विष्कम्भसूची (कहनी चाहिए)। प्रतर के पूरण और अपहार में वह सूची संख्यात योजनशतवर्ग-प्रतिभाग (खण्ड) है। (इनके) मुक्त वैक्रिय शरीरों, का कथन औधिक औदारिक शरीरों की तरह (म. 910-1 के अनुसार) समझना चाहिए। (इनके बद्ध-मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का कथन इनके ही वैक्रियशरीरों के कथन के समान समझना चाहिए। 623. जोतिसियाणं एवं चेव / णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई बेछप्पण्णंगुलसयवम्गपलिभागो पयरस्स। [923) ज्योतिष्क देवों (के बद्ध-मुक्त शरीरों) की प्ररूपणा भी इसी तरह (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची दो सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण प्रतिभाग (खण्ड) रूप प्रतर के पूरण और अपहार में समझना चाहिए / / 624. वेमाणियाणं एवं चेव / णवरं तासि णं सेढोणं विक्खं भसूई अंगुलबितियवग्गमूलं ततियवगामूलपडुप्पण्णं, अहव णं अंगुलततियवगमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीयो / सेसं तं चेव / ॥पण्णवणाए भगवईए बारसमं सरीरपयं समत्तं / / [924] वैमानिकों (के बद्ध-मुक्त शरीरों) को प्ररूपणा भी इसी तरह (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, तृतीय वर्गमूल से गुणित अंगुल के द्वितीय वर्ग 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय० वृत्ति, पत्रांक 279 से 282 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org