________________ बारहवाँ शरीरपद] [119 मूल-प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियाँ हैं / शेष सब पूर्वोक्त कथन के समान समझना चाहिए। विवेचन-वाणव्यन्तर, ज्योतिठक पौर वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (922 से 624 तक) में क्रमश: वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के बद्धमुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गई है। ___ व्यन्तरदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा-व्यन्तरदेवों के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में नरयिकों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीरों की तरह समझना चाहिए / व्यन्तरों के बद्ध वैक्रिय शरीर नारकों की तरह असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से एक-एक समय में एक-एक शरीर का अपहार करने पर असंख्यात उत्सपिणी और भसंख्यात अवसपिणी कालों में वाणव्यन्तरों के समस्त बद्धवैक्रियशरीरों का अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं / अर्थात्असंख्यात श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही वे शरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग हैं / केवल उनकी सूची में कुछ विशेषता (अन्तर) है। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कम्भसूची (विस्तारसूची) इस प्रकार है। जैसे महादण्डक में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च नपुसकों से व्यन्तरदेव असंख्यातगुणहीन कहे हैं, वैसे ही इनकी (व्यन्तरदेवों की) विष्कम्भसूची भी तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विष्कम्भसूची से असंख्यातगुणहीन कहनी चाहिए। प्रतर के पूरण और अपहरण में वह सूची संख्यातयोजनशतवर्ग प्रतिभाग (खण्ड) प्रमाण है / तात्पर्य यह है कि-असंख्यात योजन शतवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड में यदि एक-एक व्यन्तर की स्थापना की जाए तो वे सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं / अथवा यदि एक-एक व्यन्तर के अपहार में एक-एक संख्यात-योजनशतवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड का अपहरण होता है, तब सभी मिलकर व्यन्तर पूर्ण होते हैं। उससे पर सकल प्रतर है। __वाणव्यन्तरों के मुक्त वैक्रियशरीरों का कथन मुक्त औधिक वैक्रियशरीरवत् समझना चाहिए। बद्ध-मुक्त आहारक शरीरों का कथन नैरयिकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरवत् समझना चाहिए। इनके बद्ध तैजस-कार्मण शरीरों का कथन इन्हीं के बद्ध वैक्रियशरीरवत समझना मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में औधिक मुक्त तेजस-कार्मण शरीर के समान समझना चाहिए। ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा-इनके बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों का कथन नैरयिकवत् समझना चाहिए। बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से मार्गणा करने पर एक-एक समय में एक-एक शरीर का अपहरण करने पर असंख्यात-उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकालों में उनका सम्पूर्णरूप से अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियाँ है, वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग प्रमाण जाननी चाहिए। विशेष यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची व्यन्तरों को विष्कम्भसूची से संख्यातगुणी अधिक होती है, क्योंकि महादण्डक में व्यन्तरों से ज्योतिष्कदेव संख्यातगुगे अधिक बताए गए हैं। इसलिए प्रतिभाग के विषय में भी विशेष स्पष्ट तया कहते हैंउन श्रेणियों की विष्कम्भसूची 256 वर्ग प्रमाणखण्डरूप प्रतर के पूरण और अपहरण में जानना / प्राशय यह है कि 256 अंगुलवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड में यदि एक-एक ज्योतिष्क की स्थापना की जाए तो वे सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण कर पाते हैं / अथवा यदि एक-एक ज्योतिष्क के अपहार से एक-एक दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org