________________ 114 ] [ प्रज्ञापनासूत्र उरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, महब णं छ8ो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहव णं छण्णउईछेयणगदाई रासी; उक्कोसपदे असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-पोस प्पिणोहिं प्रवहीरंति कालो, खेत्तओ रूवपक्खित्तेहि मणुस्सेहि सेढी प्रवहीरति, तीसे सेढीए काल-खेत्तेहि प्रवहारो मग्गिज्जइ--असंखेजाहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीहिं कालमो, खेत्तप्रो अंगुलपढमवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडप्पण्णं / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा पोरालिया प्रोहिया मुक्केल्लगा (सु. 610 [1]) / [921-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने कहे गए हैं ? [921-1 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार--बद्ध और मुक्त / उनमें से जो बद्ध हैं, वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं / जघन्य पद में संख्यात होते हैं / संख्यात कोटाकोटी तीन यमलपद के ऊपर तथा चार यमलपद से नीचे होते हैं / अथवा पंचमवर्ग से गुणित (प्रत्युत्पन्न) छठे वर्ग-प्रमाण होते हैं; अथवा छियानवे (96) छेदनकदायी राशि (जितनी संख्या है।) उत्कृष्टपद में असंख्यात हैं / कालत:-(वे) असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्र से-एक रूप जिनमें प्रक्षिप्त किया गया है, ऐसे मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है, उस श्रेणी की काल और क्षेत्र से अपहार को मार्गणा होती है-कालत:--असंख्यात उत्सपिणी-अवपिणीकालों से (असंख्यात मनुष्यों का) अपहार होता है / क्षेत्रत:-(वे) तीसरे वर्गमूल से गुणित अंगुल का प्रथमवर्गमूल (-प्रमाण होते हैं / ) उन में जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, उनके विषय में (सू. 910-1 में उल्लिखित) प्रौधिक मुक्त औदारिक शरीरों के समान जानना चाहिए / [2] वेउब्धियाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णता / तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं संखेज्जा, समए समए प्रवहीरमाणा प्रवहीरमाणा संखेज्जेणं कालेणं अवहीरंति णो चेवणं अवहिया सिया / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा मोरालिया मोहिया (सु. 610 [1]) / [621-2 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [921-2 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे संख्यात हैं / समय-समय में (वे) अपहृत होते-होते संख्यातकाल में अपहृत होते हैं; किन्तु अपहृत नहीं किए गए हैं। उनमें से जो मुक्त वैक्रिय शरीर हैं, उनके विषय में (सू. 610-1 में उल्लिखित) औधिक औदारिक शरीरों के समान समझना चाहिए / [3] आहारगसरीरा जहा ओहिया (सु. 610 [3]) / [921-3] (इनके बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों की प्ररूपणा (सू. 910-3 में उल्लिखित) औधिक आहारकशरीरों के समान समझनी चाहिए / [4] तेया-कम्मया जहा एतेसि चेव पोरालिया। [921-4] (मनुष्यों के बद्धमुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों का निरूपण इन्हीं के (बद्धमुक्त) औदारिकशरीरों के समान (समझना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org