Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 112 [ प्रज्ञापनासूत्र ____ गोयमा ! दुविहा पण्णता / तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा जहा असुरकुमाराणं (सु. 612 [2]) / णवरं तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जतिभागो / मुक्केल्लगा तहेव / [920] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के (समस्त बद्ध-मुक्त शरीरों के विषय में इसी प्रकार (कहना चाहिए।) इनके (बद्ध-मुक्त) वैक्रिय शरोरों (के विषय) में यह विशेषता है / [प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ? [उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध वक्रियशरीर हैं, वे असंख्यात हैं, उनकी प्ररूपणा (सू. 612-2 में) उल्लिखित असुरकुमारों के (बद्धमुक्त वैक्रियशरीरों के) समान (करनी चाहिए / ) विशेष यह है कि (यहाँ) उन श्रेणियों को विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवाँ भाग (समझना चाहिए) / इनके मुक्त वैक्रियशरीरों के विषय में भी उसी प्रकार (औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान) समझना चाहिए। विवेचन-द्वीन्द्रियों से तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक के बद्ध-मक्त शरीरों को प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है। द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीरों को प्ररूपणा-द्वीन्द्रियों के बद्ध प्रौदारिक शरीर असंख्यात हैं। उनका काल से परिमाण इस प्रकार है यदि उत्सपिणी और अवसपिणी कालों के एक एक समय में एक-एक औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सपिणी-अवपिणियों में इन सब का अपहरण सम्भव है। दूसरे शब्दों में कहें तो-असंख्यात उत्सपिणो एवं अवसर्पिणी कालों में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण में बद्ध औदारिक शरीर हैं / क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणियों के बराबर हैं, अर्थात्-असंख्यातश्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही प्रमाण में इनके बद्ध औदारिकशरीर हैं। उन श्रेणियों का परिमाणविशेष इस प्रकार है-पूर्वोक्त प्रकार से वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग-प्रमाण होती हैं। अर्थात् -प्रतर के असंख्यात भाग-प्रमाण असंख्यातश्रेणियाँ होती हैं / नारकों ओर भवनपतियों के शरीरों के प्रतरासंख्येय भाग को अपेक्षा द्वीन्द्रियों के शरीरों का प्रतरासंख्येय भाग कुछ भिन्न प्रकार का है / वह इस प्रकार हैउन श्रेणियों का परिमाण निश्चित करने के लिए जो विष्कम्भ (विस्तार-) सूची मानी है, वह कोटी योजन-प्रमाण समझनी चाहिए। अथवा-एक परिपूर्ण श्रेणी के प्रदेशों की जो राशि होती है, उसका जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय, यावत् असंख्यातवाँ वर्गमूल है, उन सबको एकत्र संकलित कर लिया जाय / उन सबको संकलित करने पर जितनी प्रदेशराशि हो, उतने प्रदेशों वालो विष्कम्भसूची समझनी चाहिए / इसे एक उदाहरण के द्वारा समझिए-यद्यपि श्रेणी में असंख्यातप्रदेश होते हैं, किन्तु असत्कल्पना से उन्हें मूल 65536 (पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस) मान लें, तो उनका प्रथम वर्गमूल 256 आता है, दूसरा वर्गमूल 16, तीसरा वर्गमूल 4 और चौथा वर्गमूल 2 आता है / इन सब संख्याओं का योग 278 होता है / असत्कल्पना से इतने प्रदेशों की सूची समझनी चाहिए। द्वीन्द्रिय जीवों के शरीर कितनी अवगाहना के द्वारा कितने काल में सम्पूर्ण प्रतर को पूरा करते हैं ? इसका समाधान शास्त्रकार यों करते हैं-द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org