________________ 110] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा- प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 914 से 917 तक) में पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वोकायिकों प्रादि के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीर-पृथ्वी-अप-तेजस्कायिकों के बद्ध औदारिक शरोर असंख्यात हैं। काल से असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों के समयों के बराबर हैं, और क्षेत्र से असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इस सम्बन्ध में युक्ति पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए ! इनके मुक्त प्रौदारिक शरीर औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए। पृथ्वोकायिकों आदि के वैनिय-माहारक-तेजस-कार्मणशरीरों को प्ररूपणा----इनमें वैक्रियलब्धि एवं आहारकलब्धि का अभाव होने से, इनके बद्धवैक्रिय एवं आहारकशरीर नहीं होते। मुक्त आहारक एवं वैक्रिय शरीरों का कथन मुक्त औदारिकशरीरवत् समझना चाहिए / इनके तैजस और कार्मण शरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्धमुक्त औदारिक शरीरों के समान जाननी चाहिए। वायुकायिकों के बद्धमुक्त पांचों शरीरों को प्ररूपणा-बायुकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिक पृथ्वी कायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिए / वायुकाय में वैक्रिय शरीर पाया जाता है, अत: वायुकायिकों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं / काल की अपेक्षा से यदि प्रतिसमय एक-एक वैक्रियशरीर का अपहरण किया जाये तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल में उनका पूर्णतया अपहरण हो। तात्पर्य यह कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल के जितने समय हैं, उतने ही वायुकायिकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। वायुकायिक जीवों के सूक्ष्म और बादर ये दो-दो भेद हैं, फिर उनके प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद हैं। इनमें से बादर पर्याप्त वायुकायिकों के अतिरिक्त शेष तीनों में प्रत्येक असंख्यात लोकाकाशप्रमाण हैं, बादरपर्याप्तवायुकायिक प्रतर के असंख्यात-भाग-प्रमाण हैं। इनमें से तीन प्रकार के वायुकायिकों के वैक्रियलब्धि नहीं होती, सिर्फ बादर वायुकायिकों में से भी संख्यातभागमात्र में ही वैक्रियलब्धि होती है। क्योंकि पृच्छा के समय पल्योपम के असंख्येय भागमात्र हो वैक्रिय शरीरवाले पाए जाते हैं / अत: सिर्फ इनके ही वैक्रियशरीर होता है, अन्य तीनों के नहीं / वायुकायिकों के मुक्त वैक्रियशरीर के विषय में प्रौधिक मुक्त वैक्रियशरीर की तरह हो कहना चाहिए। इनके बद्ध तैजस, कार्मण शरीर के विषय में बद्ध औदारिक शरीर की तरह तथा मुक्त तैजस-कार्मणशरीर मुक्त औधिक तैजस, कार्मणशरीर की तरह समझना चाहिए। वायुकायिकों में प्राहारकलब्धि का अभाव होने से केवल अनन्त मुक्त आहारक शरीर ही होते हैं, बद्ध नहीं। वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों को प्ररूपणा-वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों का कथन पृथ्वी कायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीर की तरह करना चाहिए। बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों को प्ररूपणा औधिक तेजस-कार्मण शरीरों की तरह समझनी चाहिए / उनके वैक्रिय और आहारक शरीर मुक्त ही होते हैं, बद्ध नहीं, क्योंकि उनमें वैक्रियल ब्धि तथा आहारकलब्धि नहीं होती।' 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 277 (ख) तिण्हं ताव रासीणं वेउग्वियलद्धी चेव नत्यि / बायरपज्जत्ताणं पि संखेज्जइभागमेताण लद्धी अस्थि // -प्रज्ञापना चूणि, प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 277 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org