________________ बारहवां शरीरपद ] [111 द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रियतिर्यचों तक के बद्ध मुक्त शरीरों का परिमाण 618. [1] बेइंदियाणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ गं जे ते बद्ध लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोहि अवहोरंति कालो, खेत्तमो असंखेज्जाम्रो सेढीयो पयरस्स असंखेज्जतिभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीनो असंखेज्जाइं सेढिवग्गमूलाई / बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्ध ल्लगेहि पयरं अबहीरति, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोहि कालो, खेत्तमो अंगुलपयरस्स प्रावलियाए य असंखेज्जतिभागपलिभागेणं / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा प्रोहिया पोरालिया मुक्केल्लया (सु. 610 [1]) / [918-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? [918-1 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध औदारिक शरीर हैं, वे असंख्यात हैं। कालत:-(वे) असंख्यात उत्सपिणियों और अवपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रत:-असंख्यात श्रेणि-प्रमाण हैं / (वे श्रेणियाँ) प्रतर के असंख्यात भाग (प्रमाण) हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, असंख्यात कोटाकोटी योजनप्रमाण है। (अथवा) असंख्यात श्रेणि वर्ग-मूल के समान होती है / द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिक शरीरों से प्रतर अपहृत किया जाता है। काल की अपेक्षा से---असंख्यात उत्पपिणी-अवसर्पिणी-कालों से (अपहार होता है)। क्षेत्र की अपेक्षा से-अंगुल-मात्र प्रतर और प्रावलिका के असंख्यात भाग-प्रतिभाग-(प्रमाण खण्ड) से (अपहार होता है)। उनमें जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, (उनके विषय में) जैसे (सू. 610-1 में) औधिक मुक्त औदारिक शरीरों के (विषय में कहा है,) वैसे (कहना चाहिए)। [2] देउब्विया माहारगा 4 बद्ध ल्लगा गस्थि, मुक्केल्लगा जहा प्रोहिया पोरालिया मुक्केल्लया (सु. 610 [1]) / [918-2 प्र. (इनके) वैक्रियशरीर और आहारकशरीर बद्ध नहीं होते। मुक्त (वैक्रिय और आहारक शरीरों का कथन) (सू. 610-1 में उल्लिखित) औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान करना चाहिए। [3] तेया-कम्मगा जहा एतेसि चेव प्रोहिया पोरालिया। [618-3] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में इन्हीं के समुच्चय (औधिक) औदारिकशरीरों के समान (कहना चाहिए)। 616. एवं जाव चरिदिया। [916] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों के समस्त बद्धमुक्त शरीरों के विषय में) कहना चाहिए। 920. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव / नवरं वेउब्वियसरीरएस इमो विसेसो-पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिया वेउन्वियसरीरया पण्णता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org