________________ बारहवाँ शरीरपद ] [101 यदि यहाँ उन पुद्गलों को लिया जाए, जिन्हें जीव ने औदारिक शरीर के रूप में अतीतकाल में ग्रहण करके त्याग दिया है, तो सभी जीवों ने सभी पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागा है, कोई पुद्गल शेष नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में मुक्त औदारिक शरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग हैं, यह कथन कैसे संगत हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ मुक्त औदारिक शरीरों से न तो केवल अविकल (अखंडित) शरीरों का ही ग्रहण किया जाता है, और न औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागे हुए पुद्गलों का ग्रहण किया है अत: यहाँ पूर्वोक्त दोषापत्ति नहीं है / जिस औदारिक शरीर को जीव ने ग्रहण करके त्याग दिया है और वह विनष्ट होता हुआ अनन्त भेदों वाला होता है / वे अनन्त भेदों को प्राप्त होते हुए औदारिक पुद्गल जब तक औदारिक पर्याय का परित्याग नहीं करते, तब तक वे औदारिक शरीर ही कहलाते हैं। जिन पुद्गलों ने औदारिक पर्याय का परित्याग कर दिया, वे औदारिक शरीर नहीं कहलाते / इस प्रकार एक ही शरीर के अनन्त शरीर सम्भव हो जाते हैं। इस तरह एक-एक शरीर अनन्त-प्रनन्त भेदों वाला होने से एक ही समय में प्रचुर अनन्त शरीर पाए जाते हैं। वे असंख्यातकाल तक अवस्थित रहते हैं। उस असंख्यातकाल में जीवों द्वारा त्यागे हुए अन्य असंख्यात शरीर भी होते हैं। उन सबके भी प्रत्येक के अनन्त-अनन्त भेद होते हैं। उनमें से उस काल में जो औदारिकशरीरपर्याय का परित्याग कर देते हैं, उनकी गणना भी इनमें नहीं की जाती, शेष की गणना प्रौदारिकशरीरों में होती है। अतएव मुक्त औदारिकशरीरों का जो परिमाण ऊपर बताया गया है, वह कथन संगत हो जाता है। जिस प्रकार लवणपरिणाम में परिणत लवण थोड़ा हो या ज्यादा, वह (विभिन्न लवणों का) पुद्गलसंघात लवण ही कहलाता है, इसी प्रकार औदारिक रूप से परिणत औदारिक शरीरयोग्य पुद्गलसंघात भी चाहे थोड़ा (आधा, पाव भाग या एक देश भी) हो, चाहे बहुत (पूर्ण औदारिक शरीर) हो, वह भी औदारिक शरीर ही कहलाता है। यहाँ तक कि शरीर का अनन्तवाँ भाग भी शरीर ही कहलाता है / अब प्रश्न यह है कि अनन्तानन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण औदारिक शरीर एक ही लोक में कैसे अवगाढ होकर रहे (समाए) हुए हैं ? इसका समाधान यह है कि दीपक के प्रकाश के समान उनका भी एक लोक में समावेश हो जाता है। जैसे--एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उस भवन में परस्पर विरोध न होने से रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिकशरीर भी एक ही लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त क्रियशरीरों का परिमाण-बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं। कालत: असंख्यात की प्ररूपणा अगर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक वैक्रिय शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त वैक्रिय शरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सपिणियाँ और अवपिणियाँ व्यतीत हो जाएँ। संक्षेप में यों कहा जा सकता है-असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यातश्रेणीप्रमाण हैं और उन श्रेणियों का परिमाण प्रतर का असंख्यातवाँ भाग इसका तात्पर्य यह है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ हैं और उन श्रेणियों में जितने श्राकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर हैं / श्रेणी का परिमाण यों है-- घनीकृत लोक सब ओर से 7 रज्जु प्रमाण होता है। ऐसे लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org