________________ बारहवाँ शरीरपद ] [ 107 [3] आहारयसरीरा जहा एतेसि णं चेव पोरालिया तहेव दुविहा भाणियब्वा। [612-3] (इनके) (बद्ध-मुक्त) पाहारक शरीरों के विषय में, इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के औदारिक शरीरों की तरह प्ररूपणा करनी चाहिए। [4] तेया-कम्मसरीरा दुविहा वि जहा एतेसि णं चेव वेउव्विया / [912-4] (इनके बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के तेजस और कार्मण शरीरों (का कथन) भी इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों के समान समझ लेना चाहिए / 613. एवं जाव थणियकुमारा। [613] यावत् स्तनितकुमारों तक के बद्ध-मुक्त सभी शरीरों को प्ररूपणा भी इसी प्रकार (करनी चाहिए।) विवेचन-असुरकुमारादि के बद्धमुक्त शरीरों की प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू.९१२-६१३) में असरकमार से लेकर स्तनितकुमार तक के दसों भवनपतिदेवों के बद्ध एवं मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है / असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीर–इनके बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते क्योंकि नारकों को तरह इनका भी भवस्वभाव इसमें बाधक कारण है / इनके मुक्त प्रौदारिक शरीर नै रयिकों की तरह समझने चाहिए। असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त बैक्रिय शरीरों का निरूपण--इनके बद्ध वैक्रियशरीर असुरकुमार देवों को असंख्यात संख्या के बराबर असंख्यात हैं। काल से तो पूर्ववत् असंख्यात उत्सपिणियोंअवपिणियों के समयों के तुल्य हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से-असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं। असंख्यात श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्धवैक्रियशरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग-प्रमाण होती हैं / यहाँ नारकों की अपेक्षा विशेषतर परिमाण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैंउन श्रेणियों से परिमाण के लिए जो विष्कम्भसूची है, वह अंगूल-प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग है। जैसे कि असत्कल्पना से एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र की प्रदेशराशि 256 मानी गई। उसका जो प्रथम वर्गमूल है, वह 16 संख्यावाला माना गया। उसके संख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हों, असत्कल्पना से पांच या छह हों, उतने प्रदेशों वाली श्रेणी परिमाण के लिए विष्कम्भसूची समझनी चाहिए। इस दृष्टि से नैरयिकों की अपेक्षा असुरकुमारदेवों की विष्कम्भसूची असंख्यातगुणहीन है, क्योंकि नारकों की श्रेणी के परिमाण के लिए गहीत विष्कम्भसूची द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितने प्रदेशों वाली है / वस्तुतः द्वितीय वर्गमूल असंख्यातप्रदेशात्मक होता है / अतएव असंख्यातगुणयुक्त प्रथम वर्गमूल के प्रदेशों जितनी नारकों की सूची है, जबकि असुरकुमारादि की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के संख्यातभाग-प्रदेशरूप ही है। यह युक्तियुक्त भी है। क्योंकि महादण्डक में भी समस्त भवनवासियों को रत्नप्रभा पृथ्वी के नरपिका 4 मा असंख्यात गुगहान कहा गया है। इस दृष्टि से समस्त नारकों की अपेक्षा उनकी असंख्यातगुणहीनता स्वत: सिद्ध हो जाती है। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों को प्ररूपणा औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों की तरह करनी चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org