________________ 106] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रकार भी बताते हैं-अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि को अपने प्रथम वर्गमूल के साथ गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतने ही प्रमाण वालो सुचो जितनो श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। नारकों के मुक्त वैक्रियशरीर की प्ररूपणा उनके मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए / नारकों के बद्ध-मुक्त आहारक शरीर-जैसे नारकों के बद्ध औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसा ही उनके बद्ध आहारकशरीर के विषय में भी समझना चाहिए / नारकों के बद्ध पाहारकशरीर होते ही नहीं, क्योंकि उनमें आहारकल ब्धि सम्भव नहीं है। आहारकशरीर तो केवल आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दश पूर्वधारी मुनियों को ही होता है। नैरयिकों के मुक्त आहारक शरीरों के विषय में पूर्ववत समझना चाहिए।' भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण 612. [1] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरा पण्णता? गोयमा ! जहा गैरइयाणं पोरालिया भणिया (सु. 611 [1]) तहेव एतेसि पि भाणियव्वा / [612-1 प्र.] भगवन् ! असुर कुमारों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गए हैं ? [112-1 उ.] गौतम ! जैसे नैरयिकों के (बद्ध-मुक्त) औदादिक शरीरों के विषय में (सू. 911-1 में) कहा गया है, उसी प्रकार इनके (असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के) विषय में भी कहना चाहिए। [2] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया बेउब्वियसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धल्लगा य मुषकेल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोहिं प्रवहीरंति कालमो, खेत्तनो प्रसंखेज्जानो सेढीनो पतरस्स असंखेज्जतिभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवम्गमूलस्स संखेज्जतिभागो। तत्थ गं जे ते मुक्केल्लया ते णं जहा पोरालिपस्स मुक्केल्लगा तहा भाणियन्वा (सु. 110 [1]) / [612-2 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? [612-2 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से, असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों में वे अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों (जितने) हैं। (वे श्रेणियां) प्रतर का असंख्यातवाँ भाग (प्रमाण हैं / ) उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग (प्रमाण) है। उनमें जो (असुरकुमारों के) मुक्त (वैक्रिय) शरीर हैं, उनके विषय में जैसे (सू. 610-1 में) मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना सूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 274-275 / (ख) 'अंगुलबिइयवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पण्णं' -प्रज्ञापना म. बृत्ति, पत्रांक 275 में उद्धृत / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org