________________ बारहवाँ शरीरपद] [105 नारकों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों को प्ररूपणा-नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर उतने ही हैं, जितने नैरयिक हैं, क्योंकि प्रत्येक नारक का एक बद्ध वैक्रियशरोर होता है। नारक जोवों की संख्या असंख्यात होने से उनके बद्ध वैक्रियशरीरों की संख्या भी असंख्यात ही है। इस असंख्यातता को काल और क्षेत्र से प्ररूपणा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-कालत:- उत्सपिणो और अवसर्पिणीकालों के एक-एक समय में यदि एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सपिणियों और अवपिणियों में उन सब शरीरों का अपहरण होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो-असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवपिणियों के जितने समय हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरोर होते हैं। क्षेत्रत:-वे असंख्यातश्रेणी-प्रमाण हैं। और प्रतर का असंख्यातवाँ भाग ही श्रेणी कहलाती है / ऐसी असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। अब प्रश्न यह है कि सकल (सम्पूर्ण) प्रतर में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं, प्रतर के अर्द्धभाग में भी और तृतीय (तिहाई) भाग आदि में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं, ऐसी स्थिति में यहाँ कितनी संख्या वालो श्रेणियाँ समझी जाएँ ? इसी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए भूलपाठ में कहा गया है—प्रतर का असंख्यातवाँ भाग / अर्थात्-प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ होती हैं, उतनी ही श्रेणियाँ यहाँ ग्रहण करनी चाहिए। फिर यहाँ उनका विशेष परिमाण बतलाने के लिए कहा गया है--उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अर्थात् विस्तार को लेकर सूचीएकप्रादेशिकी श्रेणी उतनी होती है, जितनी अंगुल के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर (जो) राशि निष्पन्न होती है। आशय यह है कि एक अंगुल-प्रमाणमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की जितनी प्रदेशराशि होती है, उसके असंख्यात वर्गमूल होते हैं। यथा-प्रथमवर्गमूल का भी जो वर्गमूल होता है, वह द्वितीय वर्गमूल होता है, उस द्वितीय वर्गमूल का जो वर्गमूल होता है, वह तृतीय वर्गमूल होता है, इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यात वर्गमूल होते हैं। अतः प्रस्तुत में प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल के साथ गुणित करने पर जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशों की सूची की बुद्धि से कल्पना कर ली जाए। तत्पश्चात् विस्तार में उसे दक्षिण-उत्तर में लम्बी स्थापित कर लो जाए। वह स्थापित की हुई सूची जितनी श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनः श्रेणियाँ यहां ग्रहण कर लेनी चाहिए। उदाहरणार्थ-यों तो एक अंगूलमात्र क्षेत्र में असंख्यात प्रदेशराशि होती है, फिर भी असत्कल्पना से उसको संख्या 256 मान लें। इस 256 संख्या का प्रथम वर्गमूल सोलह (245=10+6=16) होता है। दूसरा वर्गमूल 4 और तृतीय वर्गमूल 2 होता है। इनमें से जो द्वितीय वर्गमूल चार संख्या वाला है, उसके साथ सोलह संख्या वाले प्रथम वर्गमूल को गुणित करने पर 64 (चौसठ) संख्या आती है। बस, इतनी ही इसकी श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इसी बात को शास्त्रकार प्रकारान्तर से कहते हैं—अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घन-प्रमाण (घन जितनी) श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इसका आशय यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उन प्रदेशों की राशि के साथ द्वितीय वर्गमूल का, अर्थात्---असत्कल्पना से चार का जो घन हो, उतने प्रमाण वाली श्रेणियाँ समझना चाहिए। जिस राशि का जो वर्ग हो, उसे उसी राशि से गुणा करने पर 'घन' होता है। जैसे-दो का घन पाठ है। वह इस प्रकार है-दो राशि का वर्ग चार है, उस को (चार को) दो के साथ गुणा करने पर पाठ संख्या होती है। इसलिए दो राशि का घन आठ हुआ। इसी प्रकार यहाँ पर भी चार (4) राशि का वर्ग सोलह होता है, उस को (सोलह को) चार राशि के साथ गुणा करने पर चार का घन वही चौसठ (64) आता है। इस तरह इन दोनों प्रकारों (तरीकों) में कोई वास्तविक भेद नहीं है। यहाँ वृत्तिकार एक तीसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org