________________ बारहवां शरीरपद] [103 सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। किन्तु सम्पूर्ण जीवराशि की दृष्टि से विचार किया जाए तो वे समस्त जीवों से अनन्तवें भाग कम हैं, क्योंकि सिद्धों के तैजसशरीर नहीं होता और सिद्ध सर्व जीवराशि से अनन्तवें भाग हैं, अतः उन्हें कम कर देने से तैजसशरीर सर्वजीवों के अनन्तवें भाग न्यून हो गए। मुक्त तेजसशरीर भी अनन्त हैं। काल और क्षेत्र की अपेक्षा उसकी अनन्तता पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। द्रव्य की अपेक्षा से मुक्त तैजसशरीर समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव का एक तेजसशरीर होता है। जीवों के द्वारा जब उनका परित्याग कर दिया जाता है तो वे पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं और उनका असंख्यातकालपर्यन्त उस पर्याय में अवस्थान रहता है, इतने समय में जीवों द्वारा परित्यक्त (मुक्त) अन्य तैजसशरीर प्रतिजीव असंख्यात पाए जाते हैं, और वे सभी पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं / अत: उन सबकी संख्या समस्त जीवों से अनन्तगुणी कही गई है। __ क्या समस्त मुक्त तैजसशरीरों की संख्या जीववर्गप्रमाण होती है ? इस शंका का समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--वे जीववर्ग के अनन्तभागप्रमाण होते हैं। वे समस्त मुक्ततैजसशरीर जीववर्गप्रमाण तो तब हो पाते, जबकि एक-एक जीव के तैजसशरीर सर्वजीवराशिप्रमाण होते, या उससे कुछ अधिक होते; और उनके साथ सिद्धजीवों के अनन्त भाग की पूर्ति होती / उसी राशि का उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे 4 को 4 से गुणा करने पर (44 4 = 16) सोलह संख्या वाला वर्ग होता है। किन्तु एक-एक जीव के मुक्त तैजसशरीर सर्वजीवराशि-प्रमाण या उससे कुछ अधिक नहीं हो सकते, अपितु उससे बहुत कम ही होते हैं और वे भी असंख्यातकाल तक ही रहते हैं। उतने काल में जो अन्य मुक्त तैजसशरीर होते हैं, वे भी थोड़े ही होते हैं, क्योंकि काल थोड़ा है। इस कारण मुक्त तैजसशरीर जीववर्गप्रमाण नहीं होते, किन्तु जीववर्ग के अनन्त. भागमात्र ही होते हैं। बद्ध-मुक्त कार्मणशरीरों का परिमाण--भी तैजसशरीरों के समान ही समझना चाहिए। क्योंकि तैजस और कार्मणशरीरों की संख्या समान है।' नरयिकों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा 611. [1] रइयाणं भंते ! केवइया पोरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता। तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं णस्थि / तस्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता जहा पोरालियमुक्केल्लगा (सु. 610 [1]) तहा भाणियवा। [911-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? [911-1 उ.] गौतम ! (उनके औदारिक शरीर) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—बद्ध और मुक्त / उनमें से जो बद्ध ओदारिक शरीर हैं, वे उनके नहीं होते। जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, वे (उनके) अनन्त होते हैं, जैसे (सू. 910-1 में) (प्रोधिक) औदारिक मुक्त 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 270 से 274 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org