________________ 100] [ प्रज्ञापनासूत्र [5] एवं कम्मगसरीरा वि भाणियव्वा / [910-5] इसी प्रकार कार्मण शरीर के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन--पांचों बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण–प्रस्तुत सूत्र (910-1 से 5) में द्रव्य, क्षेत्र, और काल की अपेक्षा से पांचों शरीरों के बद्ध और मुक्त शरीरों का परिमाण दिया गया है। बद्ध और मुक्त की परिभाषा-प्ररूपणा करते समय जीवों द्वारा जो शरीर परिगहोत (ग्रहण किए हुए) हैं, वे बद्धशरीर कहलाते हैं, जिन शरीरों का जीवों ने पूर्वभवों में ग्रहण करके परित्याग कर दिया है, वे मुक्तशरीर कहलाते हैं / बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण-पांचों शरीरों के बद्धरूप और मुक्तरूप का द्रव्य की अपेक्षा से अभव्य आदि से, क्षेत्र की अपेक्षा से श्रेणि, प्रतर आदि से और काल की अपेक्षा से आवलिकादि द्वारा परिमाण का विचार शास्त्रकारों ने किया है / बद्ध और मुक्त औदारिक शरीरों का परिमाणबद्ध औदारिक शरीर असंख्यात हैं। यद्यपि बद्ध औदारिक शरीर के धारक जीव अनन्त हैं, तथापि यहाँ जो बद्ध औदारिक शरीरों का परिमाण असंख्यात कहा है, उसका कारण यह है-औदारिक शरीरधारी जीव दो प्रकार के होते हैं-- प्रत्येकशरीरी और अनन्तकायिक / प्रत्येकशरीरी जीवों का अलग-अलग औदारिक शरीर होता है, किन्तु जो अनन्तकायिक होते हैं, उनका औदारिक शरीर पृथक्-पृथक् नहीं होता, अनन्तानन्त जीवों का एक ही होता है / इस कारण औदारिकशरीरी जीव अनन्तानन्त होते हुए भी उनके शरीर असंख्यात ही हैं। काल को अपेक्षा से-बद्धऔदारिक शरीर प्रसंख्यात उत्सपिणियों और असंख्यात अवसपिणियों में अपहृत होते हैं, इसका तात्पर्य यह है कि यदि उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त औदारिक शरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सपिणियाँ और अवसपिणियाँ व्यतीत हो जाएँ। क्षेत्र की अपेक्षा से-बद्धऔदारिक शरीर असंख्यातलोकप्रमाण हैं, इसका अर्थ हुआ---अगर समस्त बद्ध औदारिक शरीरों को अपनी-अपनी अवगाहना से परस्पर अपिण्डरूप में (पृथक-पृथक्) आकाशप्रदेशों में स्थापित किया जाए तो असंख्यातलोकाकाश उन पृथक्-पृथक् स्थापित शरीरों से व्याप्त हो जाएँ। मुक्त औदारिक शरीर अनन्त होते हैं, उनका परिमाण कालतः अनन्त उत्सपिणियों-अवसपिणियों के अपहरणकाल के बराबर है, अर्थात्-उत्सर्पिणी और अवपिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक मक्त औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त मक्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में अनन्त उत्सपिणियों और अनन्त अवसपिणियाँ समाप्त हो जाएँ। संक्षेप में, इसे यों कह सकते हैं कि अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों में जितने समय होते हैं, उतनी ही मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या है। क्षेत्र की अपेक्षा से--वे अनन्तलोकप्रमाण हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक लोक में असंख्यातप्रदेश होते हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही मुक्त औदारिक शरीर हैं। द्रव्य की अपेक्षा से---मुक्त औदारिक शरीर अभव्य जीवों से अनन्तगुणे होते हए भी सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग मात्र ही हैं, अर्थात्-वे सिद्ध जीवराशि के बराबर नहीं हैं / इस सम्बन्ध में एक शंका है-यदि अविकल (ज्यों के त्यों) मुक्त औदारिकशरीरों की यह संख्या मानी जाए तो भी वे अनन्त नहीं हो सकते, क्योंकि नियमानुसार पुद्गलों की स्थिति अधिक-से-अधिक असंख्यातकाल तक की होने से वे मुक्त शरीर अविकल रूप से अनन्तकाल तक ठहर नहीं सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org