________________ मारहवां शरीरपद सेढीनो पयरस्स असंखेज्जतिभागो। तत्थ णं जेते मुक्केल्लगा ते णं प्रणता, अणंताहिं उस्सप्पिणिप्रोसप्पिणीहि अवहोरंति कालो, जहा पोरालियस्स मुक्केल्लया तहेव वेउब्वियस्स वि भाणियन्या / [610-2 प्र.] भगवन् ! वैक्रिय शरीर कितने कहे गए हैं ? {101-2 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं, कालत: वे असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रत: वे असंख्यात श्रेणी-प्रमाण तथा (वे श्रेणियां) प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं। उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं / कालत: वे अनन्त उत्सपिणियों-अवपिणियों से अपहृत होते हैं; जैसे प्रौदारिक शरीर के मुक्तों के विषय में कहा गया है, वैसे ही वैक्रियशरीर के मुक्तों के विषय में भी कहना चाहिए / [3] केवतिया णं भंते ! पाहारगसरीरया पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / तस्य णं जे ते बद्धलगा ते गं सिय अस्थि सिय पत्थि / जति अस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं प्रणता जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा भागियव्वा। [910-3 प्र.] भगवन् ! आहारक शरीर कितने कहे गए हैं ? [910-3 उ.] गौतम ! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे हैं / वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि हों तो जघन्य एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं / उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं। जैसे औदारिक शरीर के मुक्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। [4] केवइया णं भंते ! तेयगसरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं प्रणता, अणंताहि उस्सपिणि-अोसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तमो अणंता लोगा, वो सिद्ध हितो अणंतगुणा सव्वजीवाणंतभागूणा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, प्रणताहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीहि प्रवहीरंति कालो, खेत्तश्रो अणंता लोगा, दव्वश्रो सम्वजीवेहितो प्रणतगुणा, जीववग्गस्स प्रणंतभागो। [910-4 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने कहे गए हैं ? [910-4 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे हैं। वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे अनन्त हैं, कालत:--अनन्त उत्सपिणियों-अवसपिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रत:अनन्तलोकप्रमाण हैं, द्रव्यतः-सिद्धों से अनन्तगुणे तथा सर्वजीवों से अनन्तवें भाग कम हैं। उनमें से जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं, कालतः–वे अनन्त उत्सपिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रत:-वे अनन्तलोकप्रमाण हैं। द्रव्यतः-(वे) समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org