________________ 88 [प्रशाफ्नासूत्र एकवचनरूप में कथन किया गया था, उसी प्रकार पृथक्त्व (बहुवचन के) रूप में (नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक समझ लेना चाहिए। 810. जीवे णं भंते ! जाई दवाई सच्चभासत्ताए गेण्हति ताई कि ठियाई गेहति ? प्रठियाई गेण्हति ? गोयमा ! जहा प्रोहियदंडगो (सु. 877) तहा एसो वि / नवरं विगलेंदिया ण पुच्छिज्जति / एवं मोसमासाए वि सच्चामोसमासाए वि। [860 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ? [890 उ. गौतम ! जैसे (सू. 877 में) प्रौधिक जीवविषयक दण्डक है, वैसे यह दण्डक भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि विकलेन्द्रियों के विषय में (उनकी भाषा सत्य न होने से) पृच्छा नहीं करनी चाहिए / जैसे सत्य भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहा है, वैसे ही मृषाभाषा के (द्रव्यों) तथा सत्यामृषाभाषा के (द्रव्यों के ग्रहण के विषय में भी कहना चाहिए।) 861. असच्चामोसमासाए वि एवं चेव / नवरं असच्चामोसभासाए विलिदिया वि पुच्छिज्जंति इमेणं अभिलावेणं विलिदिए णं भंते ! जाई दब्वाइं प्रसच्चामोसभासत्ताए गेहति ताई कि ठियाई गेति ? अठियाइं गेहति ? गोयमा ! जहा ओहियदंडनो (सु. 877) / एवं एते एगत्तपुहत्तेणं दस दंडगा भाणियब्वा / [891] असत्यामृषाभाषा के (द्रव्यों के ग्रहण के) विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि असत्यामृषाभाषा के ग्रहण के सम्बन्ध में इस अभिलाप के द्वारा विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा करनी चाहिए [प्र.] भगवन् ! विकलेन्द्रिय जीव जिन द्रव्यों को असत्यामृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है ? उ.] गौतम ! जैसे (सु. 877 में) औधिक दण्डक कहा गया है, वैसे ही (यहाँ समझ लेना चाहिए।) इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये दस दण्डक कहने चाहिए। 862. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं सच्चभासत्ताए गण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? गोयमा ! सच्चभासत्ताए णिसिरति, णो मोसभासत्ताए णिसिरति, यो सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति / एवं एगिदिय-विलिदियवज्जो दंडग्रो जाव वेमाणिए / एवं पुहुत्तेण वि / [862 प्र. भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org