Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ ग्यारहवां भाषापद [87 [886 उ.] मूषों-मसूर के, मगूसों (मूगफलियों या चौलाई की फलियों) के, तिल की फलियों के, मूग की फलियों के, उड़द की फलियों के अथवा एरण्ड के बीजों के फटने या फाड़ने से जो भेद होता है, वह उत्कटिकाभेद है / यह उत्कटिका (उत्करिका) भेद का स्वरूप है / 887. एएसि णं भंते ! दवाणं खंडामेएणं पयरामेएणं चणियाभेएणं प्रणतडियामेदेणे उक्करियाभेदेण य मिज्जमाणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवाई दम्वाई उक्करियाभेएणं मिज्जमाणाई, अणुतडियाभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, चुणियाभेएणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, पयराभेएणं भिज्जमाणाई प्रणतगुणाई, खंडामेएणं भिज्जमाणाइं प्रणतगुणाई। [887 प्र.] भगवन् ! खण्डभेद से, प्रतरभेद से, चणिकाभेद से, अनुतटिकाभेद से और उत्कटिकाभेद से भिदने (भिन्न होने वाले इन भाषाद्रव्यों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [887 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े भाषाद्रव्य उत्कटिकाभेद से भिन्न होते हैं, उनसे अनन्तगुणे अनुतटिकाभेद से भिन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा चणिकाभेद से भिन्न होने वाले अनन्तगुणे हैं, उनसे अनन्तगुणे प्रतरभेद से भिन्न होने वाले और उनसे भी अनन्तगुणे अधिक खण्डभेद से भिन्न होने वाले द्रव्य हैं। 888. [1] णेरइए णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए मेहति ताई कि ठियाई गेण्हति ? अठियाइं गण्हति ? गोयमा ! एवं चेव जहा जीवे वत्तव्वया भणिया (सु. 877) तहा रइयस्सवि जाव अप्पाबहुयं। _[888-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें (वह) स्थित (ग्रहण करता) है अथवा अस्थित (ग्रहण करता) है ? [888-1 उ.] गौतम ! जैसे (प्रोधिक) जीव के विषय में वक्तव्यता (सू. 877 में) कही है, वैसे ही यावत् अल्पबहुत्व तक नैरयिक के विषय में भी कहना चाहिए। [2] एवं एगिदियवज्जो दंडनो जाव वेमाणिया / [888-2] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिकों तक दण्डक कहना चाहिए। 886. जीवा णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गेण्हंति ताई कि ठियाई गेव्हंति ? अठियाई गेव्हंति ? गोयमा ! एवं चेव पुहुत्तेण वि णेयव्वं जाव बेमाणिया। [889 प्र.] जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या (वे) उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, अथवा अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं ? [889 उ.] गौतम ! (वे स्थित भाषाद्रव्यों को ग्रहण करते हैं / ) (जिस प्रकार एकत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org