________________ [प्रज्ञापनासूत्र देश करते हुए कहते हैं—स्थित-अस्थित द्रव्यों के ग्रहण की प्ररूपणा से लेकर अल्पबहुत्व तक की जैसी प्ररूपणा समुच्चय जीव के विषय में की है, वैसी ही प्ररूपणा नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (एकेन्द्रिय को छोड़कर) करनी चाहिए। . भिन्न-भिन्न भाषाद्रव्यों के निःसरण की व्याख्या-वक्ता दो प्रकार के होते हैं, तीव्रप्रयत्न वाले और मन्दप्रयत्न वाले। जो वक्ता रोगग्रस्तता, जराग्रस्तता या अनादरभाव के कारण मन्दप्रयत्न वाला होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य अभिन्न-स्थूलखण्डरूप एवं अव्यक्त होते हैं / जो वक्ता नीरोग, बलवान् एवं आदरभाव के कारण तीव्रप्रयत्नवाला होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य खण्ड-खण्ड एवं स्फुट होते हैं।' तीव्रप्रयत्नवान् वक्ता द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य खंडित होने के कारण सूक्ष्म होने से और अन्य द्रव्यों को वासित करने के कारण अनन्तगुण वृद्धि को प्राप्त होकर लोक के अंत तक पहुंचते हैं और संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। मंदप्रयत्न द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य लोकान्त तक नहीं पहुंच पाते। वे असंख्यात अवगाहन वर्गणा तक जाते हैं / वहाँ जाकर भेद को प्राप्त होते हैं, फिर संख्यात योजन तक आगे जाकर विध्वस्त हो जाते हैं / एकत्व और पथक्त्व के दस दण्डक-असत्यामषाभाषा के रूप में जिन द्रव्यों को ग्रहण किया जाता है, वे स्थित होते हैं, अस्थित नहीं। इस विषय में विकलेन्द्रियसहित दस दण्डक होते हैं, वे इस प्रकार हैं-नारक, भवनपति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / अथवा दस दण्डक अर्थात्-पालापक इस प्रकार होते हैं-सामान्य एक जीव के भाषाद्रव्य ग्रहण के सम्बन्ध में एक तथा चार पृथक-पृथक् चार भाषाओं के द्रव्य ग्रहण करने के.सम्बन्ध में, यों 5 एकवचन के और 5 ही बहवचन के दण्डक (पाठ) मिल कर दस दण्डक होते हैं। एकत्व और पृथक्त्व के पाठ दण्डक-एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकों से लेकर 4 भाषाओं के द्रव्यों के ग्रहण-निःसरण-सम्बन्धी एकवचन के चार दण्डक और बहुवचन के चार दण्डक, यों आठ दण्डक हुए। सोलह वचनों तथा चार भाषाजातों के प्राराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 866. कतिविहे णं भंते ! वयणे पण्णते? गोयमा ! सोलसविहे वयणे पण्णत्ते / तं जहा-एगवयणे 1 दुवयणे 2 बहुवयणे 3 इथिक्यणे 4 पुमक्यणे 5 गपुसगवयणे 6 अज्झत्थवयणे 7 उवणीयवयणे 8 प्रवणीयवयणे 6 उवणीयावणीयवयणे 10 प्रवणीयउवणीयवयणे 11 तोलवयणे 12 पडुप्पन्नवयणे 13 प्रणागयवयणे 14 पच्चक्खवयणे 15 परोक्खवयणे 16 // 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 267 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 380 "कोई मंदपयत्तो निसिरइ सकलाई सव्वदव्वाई। अन्नो तिब्वपयत्तो सो मुचइ भिदिउं ताई॥" प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. 380 2. (क) प्रज्ञापना, मलय. वृत्ति, पत्रांक 267 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 373 से 405 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org