Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ग्यारहवां भाषापद ] [93 चार प्रकार की भाषा के भाषक पाराधक या विराधक ?-प्रस्तुत चारों प्रकार की भाषाओं को जो जीव सम्यक् प्रकार से उपयोग रख कर प्रवचन (संघ) पर आई हुई मलिनता की रक्षा करने में तत्पर होकर बोलता है, अर्थात्-प्रवचन (संघ) को निन्दा और मलिनता से बचाने के लिए गौरव-लाघव का पर्यालोचन करके चारों में से किसी भी प्रकार की भाषा बोलता हुआ साधुवर्ग आराधक होता है, विराधक नहीं। किन्तु जो उपयोगपूर्वक बोलने वाले से पर-भिन्न है तथा असंयत (मन-वचन-काय के संयम से रहित) है, जो सावधव्यापार (हिंसादि पापमय प्रवृत्ति) से विरत नहीं (अविरत) है, जिसने अपने भतकालिक पापों को मिच्छामि दक्कडं (मेरा दकत मिथ्या हो), देकर तथा प्रायश्चित्त ग्रादि स्वीकार करके प्रतिहत (नष्ट) नहीं किया है तथा जिसने भविष्यकालसम्बन्धी पाप न हों, इसके लिए पापकर्मों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, ऐसा जीव चाहे सत्यभाषा बोले या मृषा, सत्यामृषा या असत्या मृषा में से कोई भी भाषा बोले, वह पाराधक नहीं, विराधक है।' चारों भाषाओं के भाषकों के अल्पबहत्व की यथार्थता-प्रस्तुत चारों भाषाओं के भाषकों के अल्पबहत्व की चर्चा करते हुए सबसे कम सत्यभाषा के भाषक बताए हैं, इसका कारण यह है कि सम्यक उपयोग (ध्यान) पूर्वक सर्वज्ञमतानुसार वस्तुतत्त्व की स्थापना (प्रतिपादन) करने की बुद्धि (दृष्टि) से जो बोलते हैं, वे ही सत्यभाषक हैं, जो पृच्छाकाल में बहुत विरले ही मिलते हैं। सत्यभाषकों से सत्यामृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि लोक में बहुत-से इस प्रकार के सच-झूठ जैसे-तैसे बोलने वाले मिलते हैं। उनसे मृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर परवंचनादि बुद्धि से बोलने वाले संसार में प्रचुर संख्या में मिलते हैं, वे सभी मृषाभाषी हैं। उनसे असंख्यातगुणे अधिक असत्यामृषाभाषक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असत्यामषाभाषक की कोटि में आते हैं। इन सब से अनन्तगुणे अभाषक इसलिए हैं कि अभाषकों की गणना में सिद्ध जीव एवं एकेन्द्रिय जीव आते हैं, वे दोनों ही अनन्त हैं / सिद्ध जीवों से भी वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं। // प्रज्ञापनासूत्र : ग्यारहवाँ भाषापद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 268 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 268-269 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org