________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [89 वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है, मृषाभाषा के रूप में निकालता है, सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? [892 उ.] गौतम ! वह (सत्यभाषा के रूप में गृहीत उन द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में निकालता है, किन्तु न तो मृषाभाषा के रूप में निकालता है, न सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, और न ही असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है / इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर (एकवचन का) दण्डक कहना चाहिए तथा इसी तरह पृथक्त्व (बहुवचन) का दण्डक भी कहना चाहिए। ____863. जीवे गं भंते ! जाई दवाई मोसभासताए गेण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसमासताए णिसिरति ? गोयमा ! णो सच्चमासत्ताए णिसिरति, मोसमासत्ताए णिसिरति, णो सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति / [893 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उन्हें वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है ? अथवा मृषाभाषा के रूप में निकालता है ? या सत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है ? अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? 893 उ.] गोतम ! (वह मृषाभाषारूप में गृहीत द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में नहीं निकालता, किन्तु मृषाभाषा के रूप में ही निकालता है, तथा सत्यामृषा भाषा के रूप में नहीं निकलता और न ही असत्यामषा भाषा के रूप में निकलता है। 864. एवं सच्चामोसमासत्ताए वि / [864] इसी प्रकार सत्यामृषाभाषा के रूप में (गृहीत द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए / ) 865. असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव / णवरं प्रसच्चामोसमासत्ताए विलिदिया तहेव पुच्छिज्जति / जाए चेव गेहति ताए चेव णिसिरति / एवं एते एगत्त-पुत्तिया अटु दंडगा भाणियब्वा / [865] असत्यामृषाभाषा के रूप में गहीत द्रव्यों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेषता यह है कि असत्यामषाभाषा के रूप में गहीत द्रव्यों के विषय में विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा उसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। (सिद्धान्त यह है कि) जिस भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है, उसी भाषा के रूप में ही द्रव्यों को निकालता है। इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये (कुल मिला कर) आठ दण्डक कहने चाहिए। विवेचन-भाषाद्रव्यों के भेद-प्रभेदरूप में निःसरण तथा ग्रहण-निःसरण के विषय में प्ररूपणाप्रस्तुत सोलह सूत्रों (880 से 895 तक) में भाषाद्रव्यों के भिन्न तथा अभिन्न रूप में निःसरण, भेदों के अल्पबहुत्व तथा भाषाद्रव्यों के ग्रहण-निःसरण के विषय में प्ररूपणा की गई है / नरयिक प्रादि के विषय में प्रतिवेश-रयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित (स्थिर) होते हैं या अस्थित (संचरणशील) ? इस प्रश्न के पूछे जाने पर शास्त्रकार प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org