________________ ग्यारहवाँ भाषापद | (85 अगले-अगले समय में निकालता है। पहले ग्रहण होने पर ही निसर्ग का होना सम्भव है, अगृहीत का नहीं। इसीलिए कहा गया है कि निसर्ग सान्तर होता है। ग्रहण की अपेक्षा से ही निसर्ग को सान्तर कहा गया है। गृहीत द्रव्य का अनन्तर अर्थात् अगले समय में नियम से निसर्ग होता है / इस दृष्टि से निरन्तर ग्रहण और निसर्ग का काल जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक का है।' भेद-अभेद-रूप में भाषाद्रव्यों के निःसरण तथा ग्रहणनिःसरणसम्बन्धी प्ररूपणा 880. जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गहियाइं णिसिरति ताई कि भिण्णाई णिसिरति ? अभिण्णाइं णिसिरति ? गोयमा ! भिण्णाई पि णिसिरति, अभिनाई पि णिसिरति / जाई भिण्णाई णिसिरति ताई अणंतगुणपरिवड्डीए परिवड्डमाणाई परिवड्डमाणाई लोयंतं फुसंति / जाइं अभिण्णाई णिसिरति ताई असंखेज्जाप्रो ओगाहणवग्गणानो गंता भेयमावज्जंति, संखेज्जाई जोयणाई गंता विद्धसमागच्छंति / [880 प्र.] भगवन् ! जीव भाषा के रूप में गृहीत जिन द्रव्यों को निकालता है, उन द्रव्यों को भिन्न (भेदप्राप्त-भेदन किए हुए को) निकालता है, अथवा अभिन्न (भेदन नहीं किए हुए को) निकालता है ? [880 उ.] गौतम ! (कोई जीव) भिन्न द्रव्यों को निकालता है, (तो कोई) अभिन्न द्रव्यों को भी निकालता है। जिन भिन्न द्रव्यों को (जीव) निकालता है, वे द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं तथा जिन अभिन्न द्रव्यों को निकालता है, वे द्रव्य संख्यात अवगाहनवर्गणा तक जा कर भेद को प्राप्त हो जाते हैं। फिर संख्यात योजनों तक आगे जाकर विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। 881. तेसि णं भंते ! दवाणं कतिविहे भेए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे भेए पण्णत्ते / तं जहा-खंडाभेए 1 पतराभेए 2 चुण्णियाभेए 3 अणतडियाभेए 4 उक्करियाभेए 5 / [881 प्र.] भगवन् ! उन द्रव्यों के भेद कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [881 उ.] गौतम ! भेद पांच प्रकार के कहे गए हैं ? वे इस प्रकार-(१) खण्डभेद, (2) प्रतरभेद, (3) चूणिकाभेद, (4) अनुतटिकाभेद और (5) उत्कटिका (उत्करिका) भेद / 882. से कि तं खंडाभेए ? 2 जणं अयखंडाण वा तउखंडाण वा तंबखंडाण वा सीसगखंडाग वा रययखंडाण वा जायरूवखंडाण वा खंडएण भेदे भवति / से तं खंडाभेदे / [882 प्र.) वह (पूर्वोक्त) खण्डभेद किस प्रकार का होता है ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 262 से 266 तक (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 348 से 379 तक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org