________________ 84] [प्रज्ञापनासूत्र (स्वगोचर अर्थात्-स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्तरावगाढरूप) होते हैं, अविषय (स्व के अगोचर अर्थात्----स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्त रावगाढ से भिन्न रूप) नहीं होते तथा उन द्रव्यों को भी जीव आनुपूर्वी से (अनुक्रम से - ग्रहण की अपेक्षा सामीप्य के अनुसार) ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से (आसन्नता का उल्लंघन करके) नहीं एवं नियम से छह दिशाओं से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, क्योंकि नियमतः त्रसनाड़ी में अवस्थित भाषक त्रसजीव छहों दिशाओं के द्रव्यों को ग्रहण करता है। (16) जोव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें सान्तर (बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर अथवा रुक-रुककर) भी ग्रहण करता है और निरन्तर (लगातार-बीचबीच में व्यवधान डाले बिना) भी ग्रहण करता है। अगर जीव भाषाद्रव्यों को सान्तर ग्रहण करे तो जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात समयों का अन्तर करके ग्रहण करता है। यदि कोई लगातार बोलता रहे तो उसकी अपेक्षा से जघन्य एक समय का अन्तर समझना चाहिए। जैसेकोई वक्ता प्रथम समय में भाषा के जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उनको निकालता तथा दूसरे समय में गृहीत पुद्गलों को तीसरे समय में निकालता है। इस प्रकार प्रथम समय में सिर्फ ग्रहण होता है, बीच के समयों में ग्रहण और निसर्ग दोनों होते हैं, अन्तिम समय में सिर्फ निसर्ग होता है। भाषापुद्गलों का ग्रहण और निसर्ग, ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य एक समय में कैसे हो सकते हैं ? 1 इस शंका का समाधान यह है कि यद्यपि जैनसिद्धान्तानुसार एक समय में दो उपयोग सम्भव नहीं हैं, किन्तु एक समय में क्रियाएँ तो अनेक हो सकती हैं, उनके होने में कोई विरोध भी नहीं / एक ही समय में एक नर्तकी भ्रमणादि क्रिया करती हई, हाथों-पैरों आदि से विविध प्रकार की क्रियाएँ करती है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। सभी वस्तुओं का एक ही समय में उत्पाद और व्यय देखा जाता है, इसी प्रकार भाषाद्रव्यों के ग्रहण और निसर्ग के परस्पर विरोधी प्रयत्न भी एक ही समय में हो सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि भाषाद्रव्यों को जीव विना व्यवधान के निरन्तर ग्रहण करता रहे तो जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात समयों तक निरंतर ग्रहण करता है / कोई असंख्यात समयों तक एक ही ग्रहण न समझ ले, इस भ्रान्ति के निवारणार्थ 'अनुसमय' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है-'एक समय के पश्चात्'। कोई व्यक्ति बीच में व्यवधान होने पर भी 'अनुसमय' समझ सकता है, इस भ्रमनिवारण के लिए 'अविरहित' शब्द प्रयुक्त किया है। इस प्रकार प्रथम समय में ग्रहण ही होता है, निसर्ग नहीं; क्योंकि विना ग्रहण के निसर्ग सम्भव नहीं। और अन्तिम में भाषा का अभिप्राय उपरत हो जाने से ग्रहण नहीं होता, केवल निसर्ग हो होता है / शेष (बीच के) दूसरे, तीसरे आदि समयों में ग्रहण-निसर्ग दोनों साथ-साथ होते हैं / किन्तु पूर्व समय में गहीत पुद्गल उसके पश्चात् के उत्तर समय में ही छोड़े जाते हैं। ऐसा नहीं होता कि जिन पुद्गलों को जिस समय में ग्रहण किया. उसी समय में निसर्ग भी हो जाए (17) भाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों को जीव सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं, क्योंकि जिस समय में जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, उसी समय में उन द्रव्यों को नहीं निकालता अर्थात प्रथम समय में गृहोत भाषाद्रव्यों को प्रथम समय में नहीं, किन्तु दूसरे समय में और दूसरे समय में गृहीत द्रव्यों को तीसरे समय में निकालता है, इत्यादि / निष्कर्ष यह है कि पूर्व-पूर्व में गृहीत द्रव्यों को 1. गहण निसरंगपयत्ता परोप्परविरोहिणो कहं समये ? समय दो उदोगा, न होज्ज, किरियाण को दोसो ? --भाष्यकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org