________________ ग्यारहवाँ भाषापद [ 83 द्रव्यापेक्षया कोई एक, कोई दो, यावत् कोई पांच वर्षों से युक्त होते हैं, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया अर्थात् ग्रहण किए हुए समस्त द्रव्यों के समुदाय की अपेक्षा से वे नियमत: पांच वर्षों से युक्त होते हैं। (8) वर्ण की अपेक्षा से भाषारूप में परिणत करने हेतु एकगुण कृष्ण से लेकर अनन्तगुण कृष्ण भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार नील, रक्त, पीत, शुक्ल वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिए। (9) ग्रहणयोग्यद्रव्यापेक्षया एक गन्ध वाले एवं दो गन्ध वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया दो गन्धवाले द्रव्यों को ही ग्रहण करता है। (10) एकगुण सुगन्ध वाले से लेकर यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, तथैव एकगुण दुर्गन्ध से लेकर अनन्तगुण दुर्गन्ध तक के भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है। (11) ग्रहणयोग्य द्रव्यों की अपेक्षा से एक रस वाले भाषाद्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया नियमतः पांच रसों वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (12) भाषा के रूप में परिणत करने हेतु एकगुण तिक्तरस वाले से लेकर अनन्तगुण तिक्तरस वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है / इसी प्रकार कटु, कषाय, अम्ल और मधुर रसों वाले भाषाद्रव्यों के विषय में समझना चाहिए। (13) भावत: स्पर्श वाले जिन द्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे भाषाद्रव्य ग्रहणद्रव्यापेक्षया एकस्पर्शी नहीं होते, क्योंकि एक परमाणु में दो स्पर्श अवश्य होते हैं / ' अतः वे द्रव्य द्विस्पर्शी, त्रिस्पर्शी या चतु:स्पर्शी होते हैं। किन्तु पंचस्पर्शी से लेकर अष्टस्पर्शी तक नहीं होते / सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष चतुःस्पर्शी भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (14) शीतस्पर्श वाले जिन भाषाद्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे एकगुण शीतस्पर्श वाले यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्षस्पर्श वाले भाषा द्रव्यों के विषय में समझना चाहिए / (15) एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप परिणत करने के लिए ग्रहण करता है, वे द्रव्य अात्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते हैं, अस्पृष्ट नहीं तथा वह अवगाढ द्रव्यों (जिन आकाशप्रदेशों में जीव के प्रदेश हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों में अवस्थित भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, अनवगाढ द्रव्यों को नहीं; विशेषतः अनन्तरावगाढ (व्यवधानरहित) द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, परम्परावगाढ (व्यवहितरूप से अवस्थित) द्रव्यों को नहीं तथा अनन्तरावगाढ जिन द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, वे अणु (थोड़े प्रदेशों वाले स्कन्ध) भी होते हैं और बादर (बहुत प्रदेशों से उपचित) भी होते हैं / फिर जितने क्षेत्र में जीव के ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्य अवस्थित हैं, उतने ही क्षेत्र में जीव उन अणुरूप द्रव्यों को ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा से भी ग्रहण करता है तथा उन्हें आदि (प्रथम समय) में भी ग्रहण करता है. मध्य (द्वितीय आदि समयों) में भी ग्रहण करता है और अन्त (ग्रहण के उत्कृष्ट अन्तमुहूर्तप्रमाणकाल रूप में अन्तिम समय) में भी ग्रहण करता है। इस प्रकार के वे भाषाद्रव्य स्वविषय 1. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्श: कार्यलिंगश्च // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org