________________ 7 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [11] जाई भावतो रसमंताई गेहति ताई कि एगरसाई गेण्हति ? जाव कि पंचरसाई गेण्हति ? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च एगरसाई पि गेण्हति जाव पंचरसाई पि गेहति, सव्वगहणं पडुच्च णियमा पंचरसाइं गेहति / [८७७-११प्र.] भावतः रस वाले जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह एक रस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् पांच रस वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [877-11 उ.] गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक रस वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् पांच रस वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है; किन्तु सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पांच रस वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है / [12] जाई रसतो तित्तरसाइं मेण्हति ताई कि एगगुणतित्तरसाई मेण्हति जाव प्रणतगुणतित्तरसाइं गेहति? गोयमा ! एगगुणतित्तरसाई पि गेहति जाव अणंतगुणतित्तरसाई पि गेण्हति / एवं जाव महुरो रसो। [877-12 प्र.] रस से तिक्त (तीखे) रस वाले जिन (भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, क्या (वह) उन एकगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, यावत् (अथवा) अनन्तगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? 877-12 उ.] गौतम ! (वह) एकगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण तिक्तरस वाले (द्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार यावत् मधुर रस वाले भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहना चाहिए। [13] जाइं भावतो फासमंताई गेहति ताई कि एगफासाइं गेहति, जाव अट्ठफासाई गेण्हति ? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च जो एगफासाई गिण्हति, दुफासाई गिण्हति जाव चउफासाइं पि गेण्हति, णो पंचफासाइं गेहति, जाव णो अटफासाई पि गेहति / सम्वग्गहणं पडुच्च णियमा चउफासाइं मेण्हति / तं जहा-सीयफासाई गेण्हति, उसिणफासाइं गेहति, गिद्धफासाइं गेण्हति, लुक्खफासाइं गेहति / [877-13 प्र.] भावतः जिन स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, (तो) क्या (वह) एक स्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् पाठ स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-13 उ.] गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से एक स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, दो स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् चार स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु पांच स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, यावत् पाठ स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमत: चार स्पर्श वाले (चतुःस्पर्शी) भाषाद्रव्यों को (वह) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org