Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [ 79 ग्रहण करता है; वे चार स्पर्श वाले द्रव्य इस प्रकार हैं- शीतस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, उष्णस्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, स्निग्ध (चिकने) स्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, और रूक्षस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है / [14] जाई फासओ सोयाई गेण्हति ताई कि एगगुणसीयाई गेण्हति जाव प्रणतगुणसोयाई गण्हति ? गोयमा! एगगुणसीयाई पि गेहति जाव प्रणतगुणसीयाई पि गेहति / एवं उसिण-णिद्धलुक्खाई जाव अणंतगुणाई पि गिण्हति / [877-14 प्र.] स्पर्श से जिन शीतस्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? __ [877-14 उ.] गौतम ! (वह) एकगुण शीत द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्त पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों के ग्रहण करने के विषय में), यावत् अनन्तगुण उष्णादि स्पर्श वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) [15] जाई भंते ! जाव अणंतगुणलुक्खाई गेण्हति ताई कि पुट्ठाई गेहति अपुट्ठाई गेहति ? गोयमा ! पुट्ठाइं गेहति, णो अपुट्ठाई गेहति / [877-15 प्र.] भगवन् ! जिन एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के (भाषा) द्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-15 उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्पृष्ट द्रव्यों को नहीं ग्रहण करता। [16] जाई भंते ! पुढाई गेण्हति ताई कि ओगाढाइं गेहति प्रणोगाढाई गिण्हति ? गोयमा ! प्रोगाढाइं गेहति, णो अणोगाढाइं गेहति / / [877-16 प्र.] भगवन् ! जिन स्पृष्ट द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अनवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-16 उ.] गौतम ! वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अनवगाढ द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। [17] जाइं भंते ! प्रोगाढाई गेहति ताई कि प्रणंतरोगाढाई गेण्हति, परंपरोगाढाई गेहति ? गोयमा ! अणंतरोगाढाइं गेहति, णो परंपरोगाढाइं गेण्हति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org