________________ [प्रज्ञापनासूत्र [867 प्र.] भगवन् ! जीव भाषक हैं या प्रभाषक ? [867 उ.] गौतम ! जीब भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि जीव भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं ? [उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। उनमें से जो असंसारसमापन्नक जीव हैं, वे सिद्ध हैं और सिद्ध अभाषक होते हैं तथा उनमें जो संसारसमापन्नक (संसारी) जीव हैं, वे (भी) दो प्रकार के हैं-शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक / उनमें जो शैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे अभाषक हैं / उनमें जो अशैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-एकेन्द्रिय (स्थावर) और अनेकेन्द्रिय (त्रस) / उनमें से जो एकेन्द्रिय हैं, वे अभाषक हैं। उनमें से जो अनेकेन्द्रिय हैं, वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं / जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं / हे गौतम ! इसी हेतु से ऐसा कहा जाता है कि जीव भाषक भी हैं और प्रभाषक भी हैं। 868. नेरइया णं भंते ! कि भासगा प्रभासगा? गोयमा ! नेर इया भासगा वि प्रभासगा वि / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति नेरइया भासगा वि अभासगा वि ? गोयमा! रइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ गं जे ते अपज्जत्तगा ते णं प्रभासगा, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा, से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइया भासगा वि प्रभासगा वि / [868 प्र.] भगवन् ! नैरयिक भाषक हैं या अभाषक ? [868 उ.] गौतम ! नैरयिक भाषक भी हैं, अभाषक भी। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि नैरयिक भाषक भी हैं और प्रभाषक भी ? (उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / इनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं और जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं। हे गौतम ! इसी हेतु से ऐसा कहा जाता है कि नै रयिक भाषक भी हैं और अभाषक भी। 866. एवं एगिदियवज्जाणं णिरंतरं माणियन्वं / [866] इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर (द्वीन्द्रियों से लेकर वैमानिक देवों पर्यन्त) निरन्तर (लगातार) सभी के विषय में समझ लेना चाहिए। विवेचन--समस्त जीवों के विषय में भाषक-प्रभाषक-प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 867 से 869 तक) में समुच्चय जीवों की भाषकता-अभाषकता का विश्लेषण करके नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों की भाषकता-अभाषकता का निरूपण किया गया है / एकेन्द्रिय जीव प्रभाषक क्यों ? -जिह्वेन्द्रिय से रहित होने के कारण एकेन्द्रिय जीव अभाषक ही होते हैं।' 1. (क) पावणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ) प्र. 214-215, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 327 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org