________________ ग्यारहवां भाषापद ] [71 के अनुकूल हो, अर्थात्-वक्ता के इष्ट अर्थ का समर्थन करने वाली हो। इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं-(१) जैसे कोई किसी गुरुजन आदि से कहे-'आपकी अनुमति (इच्छा) हो तो मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। (2) कोई व्यक्ति किसी साथी से कहे-'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य कीजिए', (3) आप यह कार्य कोजिए, इसमें मेरी अनुमति है। (या ऐसी मेरी इच्छा है)। इस प्रकार की भाषा इच्छानुलोमा कहलाती है / (8) अनभिगृहीता-जो भाषा किसी नियत अर्थ का अवधारण न कर पाती हो, वक्ता की जिस भाषा में कार्य का कोई निश्चित रूप न हो, वह अनभिगृहीता भाषा है। जैसे किसी के सामने बहुत-से कार्य उपस्थित हैं, अतः वह अपने किसी बड़े या अनुभवी से पूछता है-'इस समय मैं कौन-सा कार्य करू ?' इस पर वह उत्तर देता है-'जो उचित समझो, करो।' ऐसी भाषा से किसी विशिष्ट कार्य का निर्णय नहीं होता, अत: इसे अनभिग्रहीता भाषा कहते हैं। ता--जो भाषा किसी नियत अर्थ का निश्चय करने वाली हो, जैसे--- ''इस समय श्रमक कार्य करो, दूसरा कोई कार्य न करो।' इस प्रकार की भाषा 'अभिगृहीता' है। (10) संशयकरणीजो भाषा अनेक अर्थों को प्रकट करने के कारण दूसरे के चित्त में संशय उत्पन्न कर देती हो / जैसेकिसी ने किसी से कहा—'सैन्धव ले पायो / ' सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे-घोड़ा, नमक, वस्त्र और पुरुष / 'सैन्धव' शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मंगवाता है, या घोड़ा आदि / यह संशयकरणी भाषा है / (11) व्याकृता—जिस भाषा का अर्थ स्पष्ट हो, जैसेयह घड़ा है। (12) अव्याकृता-जिस भाषा का अर्थ अत्यन्त ही गूढ़ हो, अथवा अव्यक्त (अस्पष्ट) अक्षरों का प्रयोग करना अव्याकृता भाषा है, क्योंकि वह भाषा ही समझ में नहीं आती। यह बारह प्रकार की अपर्याप्ता असत्यामृषा भाषा है। यह भाषा पूर्वोक्त सत्या, मृषा और मिश्र इन तीनों भाषाओं के लक्षण से विलक्षण होने के कारण न तो सत्य कहलाती है, न असत्य और न ही सत्यामृषा। यह भाषा केवल व्यवहारप्रवर्तक है, जो साधुजनों के लिए भी बोलने योग्य मानी गई है। समस्त जीवों के विषय में भाषक-प्रभाषक प्ररूपणा 867. जीवाणं भंते ! कि भासगा प्रभासगा? गोयमा ! जीवा मासगा वि प्रभासगा वि / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति जीवा भासगा वि प्रभासगा वि ? गोयमा ! जोवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—संसारसमावण्णगा य प्रसंसारसमावण्णगा य / तत्थ णं जे ते प्रसंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं प्रभासगा। तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णया ते णं दुविहा पण्णत्ता, तं जहा सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिवण्णगा य / तस्थ गंजे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं प्रभासगा। तत्थ पंजे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिया य प्रणेगिदिया य / तत्थ णं जे ते एगिदिया ते णं प्रभासगा। तत्थ णं जे ते प्रणेगिदिया ते दुविहा पणत्ता, तं जहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तया य / तत्थ णं जे ते प्रपज्जत्तगा ते णं प्रभासगा। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा। से एतेणढेणं गोयमा! एवं बुच्चति जीवा मासगा वि प्रभासगा वि / 01. (क) प्रज्ञापतासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 257 से 259 तक (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका सहित भा. 3, पृ. 303 से 320 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org