________________ ग्यारहवां भाषापद] अथवा मिट्टी, चांदी, सोना आदि पर अमुक मुद्रा (मुहरछाप) अंकित देखकर माष, कार्षापण, मुहर (गिन्नी), रुपया आदि कहना / (4) नामसत्या--केवल नाम के कारण ही जो भाषा सत्य मानी जाती है, वह नामसत्या कहलाती है। जैसे-कोई व्यक्ति अपने कुल की वृद्धि नहीं करता, फिर भी उसका नाम 'कुलवर्द्धन' कहा जाता है / (5) रूपसत्या-जो भाषा केवल अमुक रूप (वेशभूषा प्रादि) से ही सत्य है / जैसे-किसी व्यक्ति ने दम्भपूर्वक साधु का रूप (स्वांग) बना लिया हो, उसे, 'साधु' कहना रूपसत्या भाषा है। (6) प्रतीत्यसत्या-जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से सत्य हो। जैसेअनामिका अंगुली को 'कनिष्ठा' (सबसे छोटी) अंगुली की अपेक्षा से दीर्घ कहना, और मध्यमा की अपेक्षा से ह्रस्व कहना प्रतीत्यसत्या भाषा है। (7) व्यवहारसत्या-व्यवहार से-लोकविवक्षा से जो सत्य हो वह व्यवहारसत्य भाषा है। जैसे-किसी ने कहा---'पहाड़ जल रहा है' यहाँ पहाड़ के साथ घास की अभेदविवक्षा करके ऐसा कहा गया है। अतः लोकव्यवहार की अपेक्षा से ऐसा बोलने वाले साध की भाषा भी व्यवहारसत्या होती है। (8) भावसत्या--भाव से अर्थात-वर्ण आदि (की उत्कटता) को लेकर जो भाषा बोली जाती हो, वह भावसत्या भाषा है। अर्थात्-जो भाव जिस पदार्थ में अधिकता से पाया जाता है, उसी के आधार पर भाषा का प्रयोग करना भावसत्या भाषा है। जैसे-बलाका (बगुलों की पंक्ति) में पांचों वर्ण होने पर भी उसे श्वेत कहना। (6) योगसत्यायोग का अर्थ है-सम्बन्ध, संयोग ; उसके कारण जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे-छत्र के योग से किसी को छत्री कहना, भले ही शब्दप्रयोगकाल में उसके पास छत्र न हो। इसी प्रकार किसी को दण्ड के योग से दण्डी कहना। (10) प्रौपम्यसत्या-उपमा से जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे-गौ के समान गवय (रोम्भ) होता है। इस प्रकार की उपमा पर आश्रित भाषा औपम्यसत्या कहलाती है। दशविध पर्याप्तिका मषाभाषा की व्याख्या-(१) क्रोधनिःसता-क्रोधवश मुह से निकली हुई भाषा, (2) माननिःसृता-पहले अनुभव न किये हुए ऐश्वर्य का, अपना आत्मोत्कर्ष बताने के लिए कहना कि हमने भी एक समय ऐश्वर्य का अनुभव किया था, यह कथन मिथ्या होने से माननि:सृता है। (3) मायानिःसता-परवंचना आदि के अभिप्राय से निकली हुई वाणी। (4) लोभनिःसता-लोभवश, झूठा तौल-नाप करके पूछने पर कहना यह तौल-नाप ठीक प्रमाणोपेत है, ऐसी भाषा लोभनि:सता है। (5) प्रेय (राग)निःसृता--किसी के प्रति अत्यन्त रागवश कहना'मैं तो आपका दास हूँ', ऐसी भाषा प्रेयनिःसृता है। (6) द्वषनिःसृता-द्वषवश तीर्थकरादि का अवर्णवाद करना / (7) हास्यनिःसृता-हंसी-मजाक में झूठ बोलना / (8) भयनिःसृता-भय से निकली हुई भाषा / जैसे-चोरों आदि के डर से कोई अंटसंट या ऊटपटांग बोलता है, उसकी भाषा भयनिःसृता है। (6) प्राख्यायिकानिःसता—किसी कथा-कहानी के कहने में असम्भव वस्तु का कथन करना / (10) उपघात-निःसृता-दूसरे के हृदय को उपघात (आघात-चोट) पहुँचाने की दृष्टि से मुख से निकाली हई भाषा। जैसे—किसी पर अभ्याख्यान लगाना कि 'तु चोर है।' अथवा किसी को अंधा या काना कहना / दविध सत्यामषा भाषा की व्याख्या-(१) उत्पन्नमिश्रिता-अनुत्पन्नों (जो उत्पन्न नहीं हुए हैं) के साथ संख्यापूर्ति के लिए उत्पन्नों को मिश्रित करके बोलना / जैसे—किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक शिशुओं का जन्म होने पर भी कहना कि आज इस ग्राम या नगर में दस शिशुओं का जन्म हुआ है। (2) विगतमिश्रिता-विगत का अर्थ है-मृत / जो विगत न हो, वह अविगत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org