Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८५९-उत्तरात्मक गाथार्थ] भाषा का उद्भव (उत्पत्ति) शरीर से होता है / भाषा दो समयों में बोली जाती है / भाषा चार प्रकार की है, उनमें से दो भाषाएँ (भगवान् द्वारा बोलने के लिए) अनुमत हैं / / 193 / / विवेचन-विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वांगीण स्वरूप-प्रस्तुत दो सूत्रों में भाषा के आदि कारण, उत्पत्तिस्थान, प्राकार, अन्त, बोलने के समय, प्रकार, अनुमतियोग्य प्रकार आदि का निरूपण किया गया है। __ भाषा का मौलिक कारण-भाषा के उपादान कारण के अतिरिक्त उसका (आदि) मुल कारण क्या है ? यह प्रथम प्रश्न है। उत्तर यह है कि अवबोधवोज भाषा का मूलकारण जीव है, क्योंकि जीव के तथाविध उच्चारणादि प्रयत्न के बिना अवबोधबीज भाषा की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने कहा है- औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों शरीरों में जीव से सम्बद्ध -(प्रात्म) प्रदेश होते हैं, जिनसे जीव भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात ग्रहणकर्ता (वह भाषक जीव) उस भाषा को बोलता है अर्थात् गृहीत भाषाद्रव्यों का त्याग करता है। भाषा का प्रभव-उत्पत्ति कहाँ से ?--इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भाषा शरीरप्रभवा है अर्थात् औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर से भाषा की उत्पत्ति होती है, क्योंकि इन तीनों में से किसी एक शरीर के सामर्थ्य से भाषाद्रव्य का निर्गम होता है / भाषा का संस्थान-प्राकार-भाषा वजसंस्थिता बताई गई है, जिसका तात्पर्य यह कि भाषा का आकार वज्रसदृश होता है; क्योंकि जीव के विशिष्ट प्रयत्न द्वारा निःसृष्ट (निकले हुए) भाषा के द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं और लोक वज्र के प्राकार का है / अतएव भाषा भी वज्राकृति कही गई है। भाषा का पर्यवसान कहाँ ?--भाषा का अन्त लोकान्त (लोक के सिरे) में होता है। अर्थात् जहाँ लोक का अन्त है वहीं भाषा का अन्त है; क्योंकि लोकान्त से आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से भाषाद्रव्यों का गमन असम्भव है; ऐसा मैंने एवं शेष तीर्थकरों ने प्ररूपित किया है। भाषा का उद्भव किस योग से ? –यहां प्रथम गाथा में प्रश्न किया गया है कि भाषा का उदभव (उत्पत्ति) किस योग से होती है ? काययोग से, वचनयोग से या मनोयोग से ? उत्तर मेंपूर्ववत् सरीरप्पहवा (शरीरप्रभवा)' कहा गया है, किन्तु वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं--काययोगप्रभवा; क्योंकि प्रथम काययोग से भाषा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें भाषारूप में परिणत करके फिर वचनयोग से उन्हें निकालता-उच्चारण करता है / इस कारण भाषा को 'काययोगप्रभवा' कहना उचित है / आचार्य भद्रबाहुस्वामी कहते हैं-जीव कायिकयोग से (भाषा योग्य पुद्गलों को) ग्रहण करता है तथा वाचिकयोग से (उन्हें) निकालता है / 2 1. 'तिविहंमि सरीरंमि, जोवपएसा हवंति जीवस्स / जेहि उ गेण्हइ गहणं, तो मासइ भासओ भासं // ' -प्रज्ञापना म. वृत्ति, प. 256 में उद्धत 2. 'गिण्हइ य काइएणं, निसरइ तह वाइएण जोगेणं / ' --प्रज्ञापना म. व. पत्रांक 257 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org