________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [ 49 हैं-(५-६) जैसे मैं पहले मानता और विचारता था कि भाषा अवधारिणो है, अब भी मैं उसी प्रकार मानता और विचारता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। तात्पर्य यह है कि मेरे इस समय के मनन और चिन्तन में तथा पूर्वकालिक मनन और चिन्तन में कोई अन्तर नहीं है / भगवन् ! क्या मेरा यह मनन और चिन्तन निर्दोष एवं युक्तियुक्त है ? _भगवान का जो उत्तर है, उसमें 'मण्णामि' चितेमि' इत्यादि उत्तमपुरुषवाचक क्रियापद प्राकृतभाषा की शैली तथा पार्षप्रयोग होने के कारण मध्यमपुरुष के अर्थ में प्रयुक्त समझना चाहिए। इस दृष्टि से भगवान् के द्वारा इन्हीं पूर्वोक्त छह वाक्यों में दोहराये हुए उत्तर का अर्थ इस प्रकार होता है-'हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मनन-चिन्तन सत्य है / ) तुम मानते हो तथा युक्तिपूर्वक सोचते हो कि भाषा अवधारिणी है, यह मैं भी अपने केवलज्ञान से जानता है। इसके पश्चात भी तुम यह मानो कि भाषा अवधारिणी है, तुम यह निःसन्देह होकर चितन करो कि भाषा अवधारिणी है। अतएव (तुमने पहले जैसा माना और सोचा था) उसी तरह मानो और सोचो कि भाषा अवधारिणी है, इसमें जरा भी शंका मत करो।' सत्या, मृषा, सत्यामषा और असत्यामृषा की व्याख्या-सत्या=सत्पुरुषों-मुनियों अथवा शिष्ट जनों के लिए जो हितकारिणी हो, अर्थात इहलोक एवं परलोक की आराधना करने में सहायक होने से मुक्ति प्राप्त कराने वाली हो, वह सत्या भाषा है क्योंकि भगवदाज्ञा के सम्यक माराधक होने से सन्त-मुनिगण ही सत्पुरुष हैं, उनके लिए यह हितकारिणी है / अथवा सन्त अर्थात्-मूलगुण और उत्तरगुण, जो कि जगत् में मुक्तिपद को प्राप्त कराने के कारण होने से परमशोभन हैं, उनके लिए जो हितकारिणो हो अथवा सत् यानी विद्यमान भगवदुपदिष्ट जीवादि पदार्थों को यथावस्थित प्ररूपणा करने में जो उपयुक्त यानी अनुकूल हो या साधिका हो वह सस्या है। मषा-सत्यभाषा से विपरीत स्वरूप वालो हो, वह भूषा है। सत्यामषा-जिसमें सत्य और असत्य दोनों मिश्रित हों, अर्थात् जिसमें कुछ अंश सत्य हो और कुछ अंश असत्य हो, वह सत्यामृषा या मिश्र भाषा है / प्रसत्यामृषा--जो भाषा इन तीनों प्रकार की भाषाओं में समाविष्ट न हो सके, अर्थात् जिसे सत्य, असत्य या उभयरूप न कहा जा सके, अथवा जिसमें इन तीनों में से किसी भी भाषा का लक्षण घटित न हो सके, वह असत्यामृषा है। इस भाषा का विषय-ग्रामन्त्रण करना (बुलाना या सम्बोधित करना) अथवा आज्ञा देना आदि है। सत्य प्रादि चारों भाषाओं को पहिचान-पाराधनी हो, वह सत्या-जिसके द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना की जाए, वह आराधनी भाषा है। किसी भी विषय में शंका उपस्थित होने पर वस्तुतत्त्व की स्थापना की बुद्धि से जो सर्वज्ञमतानुसार बोली जाती है, जैसे कि आत्मा का सद्भाव है, वह स्वरूप से सत् है, पररूप से असत् है, द्रव्याथिक नय से नित्य है, पर्यायाथिक नय से अनित्य है, इत्यादि रूप से यथार्थ वस्तुस्वरूप का कथन करने वाली होने से भी आराधनी है। जो अाराधनी हो, उस भाषा को सत्याभाषा समझनी चाहिए। जो विराधनी हो, वह मषा-जिसके 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 247 2. 'सच्चा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्था वा / तविवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा // 1 / / अणहिगया जा तीसुवि सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा // -प्रज्ञापना. म. वृ., प. 248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org