________________ 54 ] [ प्रज्ञापनासून इष्ट हो, तब स्त्री आदि के लक्षणानुसार उस-उस लिग के शब्द का प्रयोग करना, वास्तविक अर्थ का निरूपण करना है, ऐसी भाषा प्रज्ञापनी होती है, मषा नहीं होती। (5) सूत्र 836 के प्रश्न का आशय यह है कि जो जाति (सामान्य) के अर्थ में स्त्रीवचन(स्त्रीलिंग शब्द) है, जैसे- सत्ता तथा जाति के अर्थ में जो पुरुषवचन (पुल्लिग शब्द) है, जैसे-भावः एवं जाति के अर्थ में जो नपुसकवचन है, जैसे सामान्यम्, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी और सत्य है, मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह कि जाति का अर्थ यहाँ सामान्य है। सामान्य का न तो लिंग के साथ कोई सम्बन्ध है और न ही संख्या (एकवचन, बहुवचन आदि) के साथ / अन्यतीथिकों ने तो वस्तुओं का लिंग और संख्या के साथ सम्बन्ध स्वीकार किया है। अतः यदि केवल जाति में एकवचन और नपुसकलिंग संगत हो तो उसमें त्रिलिंगता संभव नहीं है, किन्तु जातिवाचक शब्द तीनों लिंगों में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सत्ता आदि / ऐसी स्थिति में शंका होती है कि इस प्रकार की जात्यात्मक त्रिलिंगी भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नहीं ? भगवान् का उत्तर है-जातिवाचक जो स्त्रीवचन, पुरुषवचन और नपुसकवचन है, (जैसे-सत्ता, भावः और सामान्यम्), यह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है, क्योंकि यहाँ जाति शब्द सामान्य का वाचक है। वह अन्यतीर्थीय-परिकल्पित एकान्तरूप से एक, निरवयव और निष्क्रिय नहीं है, क्योंकि ऐसा मानना प्रमाणबाधित है / वस्तुतः वस्तु का समान परिणमन ही सामान्य है और समानपरिणाम अनेकधर्मात्मक होता है / धर्म परस्पर भी और धर्मी से भी कथंचित् अभिन्न होते हैं / अतएव जाति में भी त्रिलिंगता सम्भव है। इस कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है और मृषा नहीं है। (6) सूत्र 837 में प्ररूपित प्रश्न का आशय इस प्रकार है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा से स्त्री-पाज्ञापनी (स्त्री-प्रादेशदायिनी) होती है, जैसे कि 'यह क्षत्रियाणी ऐसा करे' तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुष-प्राज्ञापनी होती है, जैसे कि---'यह क्षत्रिय ऐसा करे', इसी प्रकार जो भाषा नसक-आज्ञापनी (नपूसक को आदेश देने वाली) है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है? तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा किसी स्त्री आदि को कोई प्राज्ञा दी जाए, वह प्राज्ञापनीभाषा है। किन्तु जिसे आज्ञा दी जाए, वह उस आज्ञा के अनुसार क्रिया सम्पादन करे ही, यह निश्चित नहीं है। अगर न करे तो वह आज्ञापनीभाषा अप्रज्ञापनी तथा मृषा कही जाए या नहीं ? इस शंका का निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं हाँ, गौतम ! जाति की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष, नपुसक को प्राज्ञादायिनी प्राज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी ही है और वह मषा नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि परलोकसम्बन्धी बाधा न पहुँचाने वाली जो आज्ञापनी भाषा स्वपरानुग्रह-बुद्धि से अभीष्ट कार्य को सम्पादन करने में समर्थ विनीत स्त्री आदि विनेय जनों को आज्ञा देने के लिए बोली जाती है, जैसे-~~-'हे साध्वी ! आज शुभनक्षत्र है, अतः अमुक अंग का या श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करो।' ऐसी प्राज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, निर्दोष है, सत्य है, किन्तु जो भाषा आज्ञापनो तो हो, किन्तु पूर्वोक्त तथ्य से विपरीत हो, अर्थात्-स्वपरपोडाजनक हो तो वह भाषा अप्रज्ञापनी है और मृषा है। (7) सूत्र 838 में प्ररूपित प्रश्न का प्राशय यह है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा स्त्रीप्रज्ञापनी हो, अर्थात्-स्त्री के लक्षण (स्वरूप) का प्रतिपादन करने वाली हो, जैसे कि स्त्री स्वभाव से तुच्छ होती है, उसमें गौरव की बहुलता होती है, उसकी इन्द्रियां चंचल होती हैं, वह धैर्य रखने में दुर्बल होती है, तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुषप्रज्ञापनी यानी पुरुष के लक्षण (स्वरूप) का निरूपण करने वाली हो, यथा-पुरुष स्वाभाविक रूप से गंभीर प्राशयवाला, विपत्ति या पड़ने पर भी कायरता धारण न करने वाला होता है तथा धैर्य का परित्याग नहीं करता इत्यादि / इसी प्रकार जो भाषा जाति की अपेक्षा से नपुंसक के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली होती है, जैसे~-नपुंसक स्वभाव से क्लीब होता है और वह मोहरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org