Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 52} [ प्रज्ञापनासूत्र [837 उ.] हाँ, गौतम ! जाति में जो स्त्री-पाज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष-आज्ञापनी है, या जाति में जो नपुंसक-प्राज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा (असत्य) नहीं है / 838. ग्रह भंते ! जातीति इस्थिपण्णवणो जातीति पुमपण्णवणी जातीति गपुसगपणवणी पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! जातीति इत्थिपण्णवणो जातीति पुमपण्णवणी जातीति णपुसगपण्णवणी पण्णधणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा / [838 प्र.] भगवन् ! इसके अनन्तर प्रश्न है-जो जाति में स्त्री-प्रज्ञापनी है, जाति में पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जाति में जो नपुसक-प्रज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? [838 उ.] हाँ. गौतम ! जो जाति में स्त्री-प्रज्ञापनी है, जाति में पुरुष-प्रज्ञापनी है अथवा जाति में नपुसक-प्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है / विवेचन-विविध पहलमों से प्रज्ञापनी भाषा को प्ररूपणा---प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 832 से 838 तक) में विविध पशु पक्षी नाम-प्रज्ञापना, स्त्री आदि वचन-निरूपण, स्त्री आदि आज्ञापनी, स्त्री आदि प्रज्ञापनी, जाति में स्त्री आदि वचन प्रज्ञापक, जाति में स्त्री आदि प्राज्ञापनी तथा जाति में स्त्री आदि प्रज्ञापनी, इन विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी सत्यभाषा का प्रतिपादन किया गया है / 'प्रज्ञापनी' भाषा का अर्थ-जिससे अर्थ (पदार्थ) का प्रज्ञापन–प्ररूपण या प्रतिपादन किया जाए, उसे 'प्रज्ञापनी भाषा' कहते हैं / इसे प्ररूपणीया या अर्थप्रतिपादिनी भी कह सकते हैं। ___ सप्तसूत्रोक्त प्रज्ञापनी भाषा किस-किस प्रकार की और सत्य क्यों ? --(1) सू. 832 में निरूपित गाय आदि शब्द जातिवाचक हैं, जैसे-गाय कहने से गोजाति का बोध होता है और जाति में स्त्री, पुरुष और नपुसक तीनों लिंगों वाले आ जाते हैं। इसलिए गो आदि शब्द त्रिलिंगी होते हुए भी इस प्रकार एक लिंग में उच्चारण की जाने वाली भाषा पदार्थ का कथन करने के लिए प्रयुक्त होने से प्रज्ञापनी है तथा यह यथार्थ वस्तु का कथन करने वाली होने से सत्य है, क्योंकि शब्द चाहे किसी भी लिंग का हो, यदि वह जातिवाचक है तो देश, काल और प्रसंग के अनुसार उस जाति के अन्तर्गत वह तीनों लिंगों वाले अर्थों का बोधक होता है। यह भाषा न तो परपीड़ाजनक है, न किसी को धोखा देने आदि के उद्देश्य से बोली जाती है / इस कारण यह प्रज्ञापनी भाषा मृषा नहीं कही जा सकती। (2) इसी प्रकार (सु. 833 में प्ररूपित) शाला, माला प्रादि स्त्रीवचन (स्त्रीवाचक भाषा), घट, पट आदि पुरुषवचन (पुरुषवाचक भाषा) तथा धनं, वनं आदि नपुसकवचन (नपुसकवाचक भाषा) है, परन्तु इन शब्दों में स्त्रीत्व, पुरुषत्व या नपुंसकत्व के लक्षण घटित नहीं होते / जैसे कि कहा हैजिसके बड़े-बड़े स्तन और केश हों, उसे स्त्री समझना चाहिए, जिसके सभी अंगों में रोम हों, उसे पुरुष कहते हैं तथा जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण घटित न हों, उसे नपुसक जानना वाहिए। स्त्री आदि के उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार शाला, माला आदि स्त्रीलिंगवाचक, घट-पट आदि पुरुषलिंगवाचक और धनं वनं आदि नपुंसकलिंगवाचक शब्दों में, इनमें से स्त्री आदि का कोई भी लक्षण घटित नहीं होता। ऐसी स्थिति में किसी शब्द को स्त्रीलिंग, किसी को पुरुषलिंग और किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org