________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [57 846. अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणति अयं मे अम्मा-पियरो 2 त्ति ? गोयमा | णो इणठे समठे, पऽण्णत्थ सणिणो। [846 प्र.] भगवन् ! ऊँट, बैल, गधा, घोड़ा, अज और एलक (भेड़) क्या यह जानता है कि ये मेरे माता-पिता हैं। [846 उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी के यह अर्थ समर्थ नहीं है / 847. ग्रह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति अयं में प्रतिराउले 2 ? गोयमा! जाव णऽण्णत्थ सणिणो / [847 प्र.] भगवन् ! ऊँट, बैल, गधा, घोड़, बकरा और भेड़ा (या भेड़) क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का घर है ? [847 उ.] गौतम ! संज्ञी को छोड़ कर, यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / 848. अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति अयं में भट्टिदारए 2 ? गोयमा ! जाव णऽणत्थ सणिणो / [848 प्र. भगवन् ! ऊँट से (लेकर) यावत् एलक (भेड़) तक (का जीव) क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का पुत्र है ? [48 उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी (पूर्वोक्त विशिष्ट ज्ञानवान्) के (अन्य के लिए) यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। विवेचन -अबोध बालक-बालिका तथा ऊँट प्रादि के अनुपयुक्त-अपरिपक्व दशा की भाषा का निर्णय--प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 839 से 848 तक) में से पांच सूत्र अबोध कुमार-कुमारिका से सम्बन्धित हैं और पांच सूत्र ऊंट आदि पशुओं से सम्बन्धित हैं। निष्कर्ष : पंचसूत्री का-अवधिज्ञानी, जातिस्मरणज्ञानी या विशिष्ट क्षयोपशम वाले नवजात शिशु (बच्चा या बच्ची) के सिवाय अन्य कोई भी अबोध शिशु बोलता हुआ यह नहीं जानता कि मैं यह बोल रहा हूँ; वह पाहार करता हुमा भी यह नहीं जानता कि मैं यह आहार कर रहा हूँ; वह यह जानने में भी समर्थ नहीं होता कि ये मेरे माता-पिता हैं; यह मेरे स्वामी का घर है, अथवा यह मेरे स्वामी का पुत्र है। उष्ट्र प्रादि से सम्बन्धित पंचसूत्री का निष्कर्ष-उष्ट्रादि के सम्बन्ध में भी शास्त्रकार ने पूर्वोक्त पंचसूत्री जैसी भाषा की पुनरावृत्ति की है, इसलिए इस पंचसूत्री का भी निष्कर्ष यही है कि विशिष्ट ज्ञानवान् या जातिस्मरणज्ञानी (संज्ञी) के सिवाय किसी भी ऊँट आदि को इन या ऐसी अन्य बातों का बोध नहीं होता। वृत्तिकार ने उष्ट्रादि की पंचसूत्री के सम्बन्ध में एक विशेष बात सूचित की है कि प्रस्तुत पंचसूत्री में ऊँट ग्रादि अति शैशवावस्था वाले ही समझना चाहिए, परिपक्व वय वाले नहीं; क्योंकि परिपक्व अवस्था वाले ऊँट आदि को तो इन बातों का परिज्ञान होना सम्भव है।' 1. (क) पण्णवणासुतं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 210-211 (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 252 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org