________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [ 55 बड़वानल को ज्वालाओं से जलता रहता है, इत्यादि / तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्त्री, पुरुष और नपुंसक जाति के गुण नहीं होते हैं जो ऊपर बता आए हैं, तथापि कहीं किसी में अन्यथा भाव भी देखा जाता है / जैसे—कोई स्त्री भी गंभीर प्राशयवाली और उत्कृष्ट सत्वशालिनी होती है, इसके विपरीत कोई पुरुष भी प्रकृति से तुच्छ, चपलेन्द्रिय और जरा-सी विपत्ति प्रा पड़ने पर कायरता धारण करते देखे जाते हैं और कोई नपुसक भी कम मोहवाला और सत्त्ववान् होता है। अतएव यह शंका उपस्थित होती है कि पूर्वोक्त प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी समझी जाए या मृषा समझी जाए ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं कि जो स्त्रीप्रज्ञापनी या नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा है, वह प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य भाषा है, मृषा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि जातिगत गुणों का निरूपण बाहुल्य को लेकर किया जाता है, एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। यही कारण है कि जब किसी समग्र जाति के गुणों का निरूपण करना होता है तो निर्मल बुद्धि वाले प्ररूपणकर्ता 'प्रायः' शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं-'प्रायः ऐसा समझना चाहिए।' जहाँ 'प्रायः' शब्द का प्रयोग नहीं होता, वहाँ भी उसे प्रसंगवश समझ लेना चाहिए / अतः कदाचित् कहीं किसी व्यक्ति में जाति गुण से विपरीत पाई जाए तो भी बहुलता के कारण कोई दोष न होने से वह भाषा प्रज्ञापनी है. मृषा नहीं। अबोध बालक-बालिका तथा ऊंट आदि की अनुपयुक्त–अपरिपक्व दशा की भाषा 836. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ बुयमाणे अहमेसे बुयामि प्रहमेसे बुयामीति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, णऽण्णस्थ सणिणो / [839 प्र.] भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि क्या मन्द कुमार (अबोध नवजात शिशु) अथवा मन्द कुमारिका (अबोध बालिका) बोलती हुई ऐसा जानती है कि मैं बोल रही हूँ ? [836 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है, सिवाय संज्ञी (अवधिज्ञानी. जातिस्मरण विशिष्ट पटु मन वाले) के / 840. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति प्राहारमाहारेमाणे प्रहमेसे पाहारमाहारेमि अहमेसे पाहारमाहारेमि ति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, पऽण्णत्थ सण्णिणो / [840 प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका प्रहार करती हुई जानती है कि मैं इस आहार को करती हैं ? [840 उ.] गौतम ! संज्ञी (अवधिज्ञानी आदि पूर्वोक्त) को छोड़ कर यह अर्थ समर्थ नहीं है / 841. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अम्मा-पियरो 2 ? गोयमा ! णो इणठे समझें, णऽण्णस्थ सणिणो / (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 249 से 252 तक / (ख) 'प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, अर्थप्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति यावत् / ' (म) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 247 से 260 तक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org