Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [53 ग्यारहवाँ भाषापद ] को नपुंसकलिंग कहना क्या प्रज्ञापनी भाषा है और क्या यह सत्य है ? मिथ्या नहीं ? भगवान् ने इसका उत्तर हाँ में दिया है। किसी भी शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वह शब्द पूर्वोक्त स्त्री, पुरुष या नपुसक के लक्षणों का वाचक नहीं होता। विभिन्न लिंगों वाले शब्दों के लिंगों की व्यवस्था शब्दानुशासन या गुरु की उपदेशपरम्परा से होती है / इस प्रकार शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करने के कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है / इसका प्रयोग न तो किसी दूषित आशय से किया जाता है और न ही इनसे किसी को पीड़ा उत्पन्न होती है। अतः इस प्रकार की प्रज्ञापनी भाषा सत्य है, मिथ्या नहीं / (3) सूत्र 834 के अनुसार प्रश्न का आशय यह है कि जिस भाषा से किसी स्त्री या किसी पुरुष या किसी नपुसक को आज्ञा दी जाए, ऐसी क्रमश : स्त्री-आज्ञापनी, पुरुषप्राज्ञापनी या नपुसक-प्राज्ञापनी भाषा क्या प्रज्ञापनी है और सत्य है ?क्योंकि प्रज्ञापनी भाषा ही सत्य होती है, जबकि यह तो आज्ञापनी भाषा है, सिर्फ आज्ञा देने में प्रयुक्त होती है / जिसे आज्ञा दी जाती है, वह तदनुसार क्रिया करेगा ही, यह निश्चित नहीं है। कदाचित् न भी करे / जैसे—कोई श्रावक किसी श्राविका से कहे--'प्रतिदिन सामायिक करो,' या श्रावक अपने पुत्र से कहे-'यथासमय धर्म की आराधना करो,' या श्रावक किसी नपुसक से कहे-'नौ तत्त्वों का चिन्तन किया करो,' ऐसी प्राज्ञा देने पर जिसे आज्ञा दी गई है, वह यदि उस आज्ञानुसार क्रिया न करे तो ऐसी स्थिति में आज्ञा देने वाले की भाषा क्या प्रज्ञापनी और सत्य कहलाएगी ? भगवन् का उत्तर इस प्रकार है कि जो भाषा किसी स्त्री, पुरुष, या नपुसक के लिए आज्ञात्मक है, वह आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है / तात्पर्य यह है कि आज्ञापनी भाषा दो प्रकार की है-परलोकबाधिनी और परलोकबाधा-अनुत्पादक / इनमें से जो भाषा स्वपरानुग्रहबुद्धि से, बिना किसी शठता के, किसी पारलौकिक फल की सिद्धि के लिए अथवा किसी विशिष्ट इहलौकिक कार्यसिद्धि के लिए विनेय स्त्री, पुरुष, नपुसक जनों के प्रति बोली जाती है, वह भाषा परलोकबाधिनी नहीं होती, यही साधुवर्ग के लिए प्रज्ञापनो भाषा है और सत्य है; किन्तु इससे भिन्न प्रकार की जो भाषा होती है, वह स्व-पर-संक्लेश उत्पन्न करती है, परलोकबाधिनी है, अतएव अप्रज्ञापनी है और मषा है। (4) सू. 835 के प्रश्न का प्राशय यह है कि यह जो स्त्रीप्रज्ञापनो-स्त्री के लक्षण बतलाने वाली, पूरुषप्रज्ञापनी-पुरुष के लक्षण बतलाने वाली तथा नपुंसकप्रज्ञापनी-नपुसक के लक्षण बतलाने वाली भाषा है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है और सत्य है ? मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह है कि 'खट्वा', 'घटः' और 'वनम्' आदि क्रमशः स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुसकलिंग के शब्द हैं। ये शब्द व्यवहारबल से अन्यत्र भी प्रयुक्त होते हैं। इनमें से खट्वा (खाट) में विशिष्ट स्तन और केश आदि के लक्षण घटित नहीं होते, इसी तरह 'घटः' शब्द में पुरुष के लक्षण घटित नहीं होते और न 'वनम्' में नपुंसक के लक्षण घटित होते हैं, फिर भी इन तीनों में से स्त्रीलिंगी शब्द 'खट्वा' खट्वा पदार्थ का वाचक होता है, पुल्लिगी शब्द 'घट:' घट पदार्थ का वाचक होता है, तथा नपुसकलिंगी 'वनम्' शब्द वन पदार्थ का वाचक होता है / ऐसी स्थिति में स्त्री आदि के लक्षण न होने पर भी स्त्रीलक्षण आदि कथन करने वाली भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नहीं ? यह संशय उत्पन्न होता है। भगवान् का उत्तर यह है कि जो भाषा स्त्रीप्रज्ञापनी है, पुरुषप्रज्ञापनी है या नपुसकप्रज्ञापनी है, वह भाषा प्रज्ञापनी है, मषा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री प्रादि के लक्षण दो प्रकार के होते हैंएक शाब्दिक व्यवहार के अनुसार, दूसरे वेद के अनुसार / शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से किसी भी लिंग वाले शब्द का प्रयोग शब्दानुशासन के नियमानुसार या उस भाषा के व्यवहारानुसार करना प्रज्ञापनी भाषा है और वह सत्य है। इसी प्रकार वेद (रमणाभिलाषा) के अनुसार प्रतिपादन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org