Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 50] [ प्रज्ञापनासूत्र द्वारा मुक्तिमार्ग की विराधना हो, वह विराधनी भाषा है। विपरीत वस्तुस्थापना के प्राशय से सर्वज्ञमत के प्रतिकूल जो बोली जाती है, जैसे कि प्रात्मा नहीं है, अथवा आत्मा एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य है, इत्यादि / अथवा जो भाषा सच्ची होते हुए भी प ए भी परपीड़ा-जनक हो, वह भाषा विराधनी है। इस प्रकार रत्नत्रयरूप मक्तिमार्ग की विराधना करने वाली हो वह भी विराधनी है / विराधनी भाषा को मृषा समझना चाहिए। जो पाराधनो-विराधनी उभयरूप हो, वह सत्यामषा—जो भाषा आंशिक रूप से आराधनी और अांशिक रूप से विराधनी हो, वह आराधनी-विराधनी कहलाती है। जैसे-किसी ग्राम या नगर में पांच बालकों का जन्म हुआ, किन्तु किसी के पूछने पर कह देना 'इस गांव या नगर में आज दसेक बालकों का जन्म हुआ है।' 'पांच बालकों का जो जन्म हुआ' उतने अंश में यह भाषा संवादिनी होने से आराधनी है, किन्तु पूरे दस बालकों का जन्म न होने से उतने अंश में यह भाषा विसंवादिनी होने से विराधनी है / इस प्रकार स्थूल व्यवहारनय के मत से यह भाषा अाराधनी-विराधनी हई / इस प्रकार की भाषा 'सत्यामृषा' है। जो न पाराधनी हो, न विराधनी, वह असत्यामषा---जिस भाषा में आराधनी के लक्षण भी घटित न होते हो तथा जो विपरीतवस्तूस्वरूप कथन के अभाव का तथा परपीड़ा का कारण न होने से जो भाषा विराधनी भी न हो तथा जो भाषा प्रांशिक संवादी और प्रांशिक विसंवादी भी न होने से आराधन-विराधनी भी न हो, ऐसी भाषा असत्यामृषा समझनी चाहिए। ऐसी भाषा प्रायः आज्ञापनी या आमंत्रणी होती है, जैसे-मुने ! प्रतिक्रमण करो / स्थण्डिल का प्रतिलेखन करो आदि / ' विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी भाषा की प्ररूपणा 832. अह भंते ! गानो मिया पसू पक्खी पण्णवणी गं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! गानो मिया पसू पक्खी पण्णवणो णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [832 प्र.] भगवन् ! अब यह बताइए कि 'गाये,' 'मृग,' 'पशु' (अथवा) 'पक्षी' क्या यह भाषा (इस प्रकार का कथन) प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा (तो) नहीं है ? [832 उ.] हाँ गौतम ! 'गायें,' 'मृग,' 'पशु' (अथवा) 'पक्षी' यह (इस प्रकार की) भाषा प्रज्ञापनी है / यह भाषा मृषा नहीं है। 833. ग्रह भंते ! जा य इस्थिवयू (ऊ) जा य पुमवयू जा य णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! जा य इथिक्यू जा य पुमवयू जा य णपुसगवयू पण्णवणी गं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [833 प्र.] भगवन् ! इसके पश्चात् यह प्रश्न है कि यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है, अथवा जो नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [833 उ.] हाँ, गौतम ! यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है, अथवा जो नपुसकवचन है, यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह भाषा मृषा नहीं है। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 247-248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org