Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 48 ] [प्रज्ञापतासूत्र [831 प्र.] भगवन् ! अवधारिणी भाषा क्या सत्य है, मृषा (असत्य) है, सत्यामृषा (मिश्र) है, अथवा असत्यामृषा (न सत्य, न असत्य) है ? [831 उ.] गौतम ! वह (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य होती है, कदाचित मृषा होती है, कदाचित् सत्यामृषा होती है और कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है ? [उ.] गौतम ! (जो) आराधनी (भाषा है, वह) सत्य है, (जो) विराधनी (भाषा है, वह) मृषा है, (जो) अाराधनी-विराधनी (उभयरूपा भाषा है, वह) सत्यामृषा है, और जो न तो आराधनी (भाषा) है, न विराधनी है और न ही आराधनी-विराधनी है, वह चौथी असत्यामृषा नाम की भाषा है / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि अवधारिणी भाषा कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और कदाचित् असत्यामृषा होती है। विवेचन-भाषा की अवधारिणिता एवं चतुर्विधता का निर्णय प्रस्तुत दो सुत्रों (सू. 830831) में से प्रथम सूत्र में श्री गौतमस्वामी ने स्वमनन-चिन्तनानुसार भाषा की अवधारिणिता का भगवान से निर्णय कराया है तथा दूसरे सूत्र में अवधारिणी भाषा के चार प्रकारों का भी निर्णय भगवान् द्वारा कराया है। __'भाषा' और 'प्रवधारिणी' की व्याख्या-भाषा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है--जो भाषी जाए अर्थात बोली जाए, वह भाषा है। इसकी शास्त्रीय परिभाषा है-भा (पुद्गलों) को ग्रहण करके उसे भाषा के रूप में परिणत करके (मुख आदि से) निकाला जाने वाला द्रव्यसंघात भाषा है / 'भाषा अवधारिणी है-इसका अर्थ हुया-भाषा अवबोध कराने वाली हैअवबोध की बीजभूत (कारण) है, क्योंकि अवधारिणी का अर्थ है-जिसके द्वारा पदार्थ का अवधारण-बोध या निश्चय होता है। प्रथम सूत्र का हार्द--प्रथम सूत्र (830) में श्री गौतमस्वामी ने भाषा की अवधारिणिता के सम्बन्ध में अपने मन्तव्य की सत्यता का भगवान से निर्णय कराने हेतु एक ही प्रश्न को छह वार विविध पहलुओं से दोहराया है / उसका तात्पर्य इस प्रकार है--(१) भगवन् ! मैं ऐसा मानता हूँ कि भाषा अवबोधकारिणी है, (2) मैं (युक्ति से भी) ऐसा चिन्तन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। इस प्रकार श्री गौतमस्वामी, भगवान् के समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट करके उसकी यथार्थता का निर्णय कराने हेतु पुनः इन दो प्रश्नों को प्रस्तुत करते हैं--(३) भगवन् ! क्या मैं ऐसा मान कि भाषा अवधारिणी है ? (4) भगवन् ! क्या मैं (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है ? अर्थात् क्या मेरा यह मानना और सोचना निर्दोष है ? इसी मन्तव्य पर भगवान् से सत्यता की पक्की मुहर छाप लगवाने हेतु श्री गौतमस्वामी पुन: इन्हीं दो प्रश्नों को दूसरे रूप में प्रस्तुत करते 1. 'भाष्यते इति भाषा' 2. 'तद्योग्यतया परिणामितनिसज्यमानद्रव्यसंहतिः, एष पदार्थः / ' 3. अवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारिणी-अवबोधबीजभूता इत्यर्थः / --प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 246 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org